Atmadharma magazine - Ank 324
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २४९६ आत्मधर्म : ३३ :
दिगंबर वीतरागी संतोए अनुभवेलुं ने कहेलुं नग्न सत्य छे, एटले के रागनी लागणी
वगरनुं परम वीतरागी सत्य छे. पर्याये अंदर वळीने शुद्धआत्माने उपादेय कर्यो तेमां
रागनो अंश पण आवतो नथी; तेमां राग न आव्यो एटले ते हेय थई ज गयो; त्यां
‘आ रागने हेय करुं’ एम विकल्प रहेतो नथी. रागनी सामे जोईने रागने हेय करातो
नथी, पण स्वभावनी सामे जोतां राग हेय थई जाय छे. शुद्धात्मानुं ग्रहण थतां रागनो
त्याग थई जाय छे, एटले ग्रहणपूर्वकनो त्याग छे. एकली नास्ति नथी, अस्तिपूर्वकनी
नास्ति छे.
भाई, आ तारा द्रव्य अने पर्याय बंनेनी वात छे. शुद्ध द्रव्यनो स्वीकार करतां
श्रद्धा–ज्ञाननी पर्याय तेमां प्रसरी जाय छे–एकाग्र थाय छे. पर्याय ते पर्याय छे, ने द्रव्य
ते द्रव्य छे,–पण एम जाणनारनी पर्याय क्यां जाय छे? पर्याय वळे छे अंतरमां द्रव्य
तरफ; तेमां अभेद थईने पर्याय शुद्ध थाय छे. अंतरमां आवी वस्तुने द्रष्टिमां लेवी ते
करवानुं छे. जे पर्याय अंतरमां वळी ते पोताना शुद्ध आत्माने ध्येय बनावीने तेने
ध्यावे छे. आ पर्याय छे ने तेना वडे हुं द्रव्यनुं ध्यान करुं–एम भेदना विचार वडे कांई
ध्यान थतुं नथी. पर्याय अंतरमां वळीने अभेद थई त्यां ध्यान थई ज गयुं. ते
ध्यानपर्याय उत्पाद–व्ययरूप छे, ने ध्रुव तो अविनाशी छे.
भगवान आत्माना ध्रुवस्वभावमां रागनी उत्पत्ति के व्यय नथी; मोक्षनो उत्पाद
थवो ने संसारनो व्यय थवो ते पण पर्यायमां छे, ध्रुवद्रव्यमां नथी.–पण आवा ध्रुवने
नक्की करनार तो पर्याय छे. ‘हुं पर्याय जेटलो नथी’ एवा निर्णयनुं कार्य कांई ध्रुवमां
नथी थतुं, ते तो पर्यायमां थाय छे. ध्रुवमां पर्याय एकाकार थई ते जाणे छे के ‘हुं शुद्ध
छुं, हुं ध्रुव छुं.’ द्रव्य ते द्रव्य छे ने पर्याय ते पर्याय छे; हवे तेमां द्रव्यने निश्चय कहो ने
पर्यायने व्यवहार कहो,–तेमां द्रव्य ते पर्यायरूप थतुं नथी एटले निश्चय ते व्यवहाररूप
थतो नथी; तो पछी रागादिरूप असद्भुत व्यवहार तो क्यां रह्यो? रागरूप व्यवहार
करतां करतां तेना वडे निश्चयधर्म थई जाय–एम कदी बनतुं नथी. रागवडे
वीतरागभाव न थाय.
‘आमां तो व्यवहारने उडाड्यो?’–ना, ‘ऊडी गयो.’ केमके निश्चयमां तो
व्यवहार छे ज नहीं, एटले निश्चयद्रष्टिमां तो व्यवहारने उडाडुं–एवुं पण क्यां छे?
शुद्धात्मानी सन्मुख थयेली पर्यायमां रागादिभावो छे ज नहीं.
भाई, तारो आत्मा आवो ‘छे.’ ! पण छे–तेनी सन्मुख थईने तें प्रतीत करी के
नहीं? अस्तिस्वभाव छे–तेनी सन्मुख थईने प्रतीत करतां सम्यक्त्व थयुं के