Atmadharma magazine - Ank 324
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: ३६ : आत्मधर्म : आसो : २४९६
नथी ने वीतरागी आनंद प्रगटे छे; माटे आत्मा पोते शरणरूप छे, ने पोते ज मंगळरूप
छे. बहारमां पंचपरमेष्ठीनुं शरण उपचारथी छे; तेना ध्यानमां शुभविकल्प छे. विकल्पनुं
शरण धर्मीने नथी. विकल्पथी पार जे चिदानंदस्वरूप निजात्मा, ते ज आराध्य अने
शरणरूप छे. तेनी आराधना वडे ज परमेष्ठीपद पमाय छे. परमेष्ठीपद तो आत्मामां
स्थित छे. बीजा पंच परमेष्ठी तो दूर छे; पोताथी बाह्य छे माटे दूर छे; दूरनुं ध्यान होय
के पोताना अंतरमां जे होय तेनुं ध्यान होय? दूरनुं ध्यान करतां तो उपयोग बहारमां
भमे छे, तेमां कांई वीतरागता थती नथी; अंतरमां पोताना ध्यान वडे उपयोग स्थिर
थतां वीतरागता थाय छे, ने तेमां पांचे परमेष्ठीपद तेम ज चारे आराधना समाई जाय
छे. अहो! मोक्षप्राभृतना अंतमंगलमां आचार्यदेवे शुद्ध आत्मामां ज चारे आराधना
समाडीने, तेना शरण वडे आराधना अखंड करीने मोक्ष साथे संधि करी छे.
भगवती–आराधनामां अखंड आराधनानो उपदेश आपतां कहे छे के–संसार–
परिभ्रमणथी जेओ भयभीत होय तेओ सम्यक्त्वादिनी आराधना वडे संसार
परिभ्रमणनो अभाव करो. सिद्ध भगवंतो जगप्रसिद्ध छे, तेओ चतुर्विध आराधना वडे
सिद्धपदने पाम्या छे, तेमने याद करीने आराधनानुं वर्णन कर्युं छे. पोताना हृदयमां जे
सिद्ध परमेष्ठीनो साक्षात्कार करे छे तेने शुद्धभाव वडे आराधना प्रगटे छे.
आराधना एटले शुं? सम्यग्दर्शन–सम्यग्ज्ञान–सम्यकचारित्र–सम्यक्तप तेनुं
‘उद्योतन’ करवुं एटले के उज्वळ करवुं, तेनुं ‘उद्यमन’ करवुं एटले के तेनी पूर्णतानो
उद्यम करवो; ‘निर्वहन’ एटले के निराकुळपणे तेनो निर्वाह करवो; ‘साधन’ एटले
निरतिचारपणे तेनुं सेवन करवुं; अने ‘निस्तरण’ एटले के आयुष्यना अंत सुधी
निर्विघ्न सेवन करीने तेने परलोक सुधी लई जवा;–आ रीते दर्शन–ज्ञान–चारित्र–तपनुं
उद्योतन, उद्यमन, निर्वहन, साधन अने निस्तरण करवुं तेने जिनवरदेवे आराधना कही
छे.
आचार्यदेव कहे छे के अहो जीवो! तमे आवी आराधनाने आराधो. जे उपायथी
पोताने दर्शन–ज्ञान–चारित्र–तपनी आराधना प्राप्त थाय, तथा तेनी अधिक विशुद्धि
थाय ते उपायमां प्रवर्तवुं; आराधना–धारक ज्ञानीजीवोनी संगति करवी. उपसर्ग–
परीषह के वेदना वगेरे आवे तोपण आराधनाने आकुळता वगर धारण करवी; तथा
आराधनाना कारणोमां प्रवर्तवुं, पोताना चिदानंदस्वभावनी सन्मुख