छे. बहारमां पंचपरमेष्ठीनुं शरण उपचारथी छे; तेना ध्यानमां शुभविकल्प छे. विकल्पनुं
शरण धर्मीने नथी. विकल्पथी पार जे चिदानंदस्वरूप निजात्मा, ते ज आराध्य अने
शरणरूप छे. तेनी आराधना वडे ज परमेष्ठीपद पमाय छे. परमेष्ठीपद तो आत्मामां
स्थित छे. बीजा पंच परमेष्ठी तो दूर छे; पोताथी बाह्य छे माटे दूर छे; दूरनुं ध्यान होय
के पोताना अंतरमां जे होय तेनुं ध्यान होय? दूरनुं ध्यान करतां तो उपयोग बहारमां
भमे छे, तेमां कांई वीतरागता थती नथी; अंतरमां पोताना ध्यान वडे उपयोग स्थिर
थतां वीतरागता थाय छे, ने तेमां पांचे परमेष्ठीपद तेम ज चारे आराधना समाई जाय
छे. अहो! मोक्षप्राभृतना अंतमंगलमां आचार्यदेवे शुद्ध आत्मामां ज चारे आराधना
समाडीने, तेना शरण वडे आराधना अखंड करीने मोक्ष साथे संधि करी छे.
परिभ्रमणनो अभाव करो. सिद्ध भगवंतो जगप्रसिद्ध छे, तेओ चतुर्विध आराधना वडे
सिद्धपदने पाम्या छे, तेमने याद करीने आराधनानुं वर्णन कर्युं छे. पोताना हृदयमां जे
सिद्ध परमेष्ठीनो साक्षात्कार करे छे तेने शुद्धभाव वडे आराधना प्रगटे छे.
उद्यम करवो; ‘निर्वहन’ एटले के निराकुळपणे तेनो निर्वाह करवो; ‘साधन’ एटले
निरतिचारपणे तेनुं सेवन करवुं; अने ‘निस्तरण’ एटले के आयुष्यना अंत सुधी
निर्विघ्न सेवन करीने तेने परलोक सुधी लई जवा;–आ रीते दर्शन–ज्ञान–चारित्र–तपनुं
उद्योतन, उद्यमन, निर्वहन, साधन अने निस्तरण करवुं तेने जिनवरदेवे आराधना कही
छे.
थाय ते उपायमां प्रवर्तवुं; आराधना–धारक ज्ञानीजीवोनी संगति करवी. उपसर्ग–
परीषह के वेदना वगेरे आवे तोपण आराधनाने आकुळता वगर धारण करवी; तथा
आराधनाना कारणोमां प्रवर्तवुं, पोताना चिदानंदस्वभावनी सन्मुख