Atmadharma magazine - Ank 324
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: ४२ : आत्मधर्म : आसो : २४९६
एक जिज्ञासु भाई लखे छे–
‘हुं थोडा वर्षो थयां आत्मधर्म मंगावुं छुं, खूब ज वांचन करुं छुं. आवुं
साहित्य–वांचन बीजुं एकेय नथी–एटलुं बधुं वीतरागी मधुर अने सर्वोत्कृष्ट
ज्ञानवाळुं छे. वर्तमानकाळे परम पूज्य गुरुदेवनो महान उपकार छे.
एक हरिजन भाई लखे छे के–
भादरोड (महुवा) थी सत्यदेव जैन (जेओ हरिजन छे) लखे छे:
कहानगुरुनी दयाथी आपणा जैनधर्ममां सौ मुमुक्षु मंडळनी पाछळ धीरे
धीरे अमे पण आवी रह्या छीए, गुरुदेवनी दयाथी एटलुं खास नक्की थयुं
छे के जैनधर्म सिवाय बीजा कोई धर्म आवुं वस्तुस्वरूप समजाववा समर्थ
नथी. जैनधर्मनो अनेकांतमार्ग छे, ने बीजानो एकांतवाद छे...अमने
गोत्रकर्म नीचुं बंधायुं ए तो अमारी कचाशथी, पण अमने गौरव तो ए छे
के गुरुकहाननी वाणीना योगथी अमे जैनधर्म स्वीकार्यो.
विशेषमां तेओ लखे छे के:– अमारा मुमुक्षुमंडळना भाणीबेन (हरिजन
बेन) ने थोडा दिवस अगाउ एक झेरी सर्पे डंश दीधो...छतां खेतरे गया, काम कर्युं,
झेर चडयुं, एकला खेतरथी चालीने घेर आव्या; अने अमारी ज्ञातिना बीजा
माणसो कहेवा लाग्या के अमुक दादानी मानता मानो (–तेमनी फाळकी पहेरो) तो
झेर ऊतरी जशे. त्यारे ते बहेने चोकखी ना पाडी–के कुदेवने नहीं ज मानुं. जो
निमित्त आवी गयुं हशे तो शरीरने राखवा कोई समर्थ नथी.–माटे एवी मानता
मानवी नथी ने गळामां सुतरनी आंटी पहेरवी नथी. आ रीते कुदेवनी मिथ्यात्व
भावना जरापण नहीं ने जैनधर्मनी अडगता राखी–ते बधो प्रताप गुरुकहाननी
वाणीनो छे. सर्प करडवा वखतेय हुं आत्मा छुं–जाणनार छुं एम याद करता हता.
ते बहेन अत्यारे क्षेमकुशळ छे,
[आपणा जैनसमाजमां पण कुदेवने मानी रहेला भाईओ–बाईओ आ
छे.]
झरीआमां जैनपाठशाळामां जे. के. कोठारी तरफथी जैनबाळपोथी वहेंचवामां
आवी हती. आ प्रसंगे तेओ लखे छे के–जैनबाळपोथी वांचीने आनंद थयो. जैन–