Atmadharma magazine - Ank 325
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 13 of 45

background image
: १० : आत्मधर्म दीवाळी अंक २४९७
जिनभावना
(भावप्रवचन)
* * * * *
आ भावप्राभृतमां आचार्यदेव वारंवार कहे छे
के हे जीव! तुं ‘जिनभावना’ भाव! जिनभावना
एटले शुद्धआत्मानी भावना; आत्माना स्वभावनी
सन्मुख थईने तेनी भावना करवी तेनुं नाम
जिनभावना छे, आवी जिनभावना वडे सम्यग्दर्शन–
ज्ञान–चारित्र प्रगटे छे. माटे हे जीवो! पूर्वे नहि
भावेली एवी अपूर्व जिनभावनाने तमे भावो.
जिनभावना वगर जीव चार गतिनां भीषण दुःख
पाम्यो, माटे हवे तेनाथी छूटवा ने मोक्षसुख पामवा
तमे जिनभावना भावो.
भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे रचेला अष्टप्राभृतमां आ पांचमुं भावप्राभृत
छे; तेमां भावशुद्धिनो उपदेश छे. भावशुद्धि एटले सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप
शुद्धभाव. वीतरागी सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप आवो शुद्धभाव आत्माना
आश्रये ज प्रगटे छे. आवा शुद्धभाववडे जे परमात्मा थया ते अरिहंतादि
परमात्माने नमस्कार करुं छुं. ते परमात्मा आवा शुद्धभावरूप सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्रनो उपदेश देनारा छे ने तेवा शुद्धभावना करनार छे. तेमणे पोताना
आत्मामां एवो शुद्धभाव कर्यो छे ने बीजा जीवोने पण तेवो शुद्धभाव करवामां
निमित्त छे. शुद्धभाव एटले वीतरागभाव अथवा सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप
भाव; ते पोताना स्वभावना आश्रये ज प्रगटे छे; तेथी आत्माने जाण्या वगर
शुद्धभाव प्रगटे नहीं. आवा आत्मानी ओळखाण करीने शुद्धभाव प्रगट करवामां
अरिहंतपरमात्मा वगेरे पंचपरमेष्ठी निमित्त छे, तेथी मंगलाचरणमां तेमने
नमस्कार करीने आ भावप्राभृत शरू थाय छे.–