Atmadharma magazine - Ank 325
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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दीवाळी अंक २४९७ आत्मधर्म : ११ :
गाथा : १
(पंच परमेष्ठी भगवंतोने नमस्कार)



णमिऊण जिणवरिंदे णरसुरभवणिंदवंदिए सिद्धे।
वोच्छामि भावपाहुडम् अवसेसे संजदे सिरसा।।१।।
निर–ईन्द्रथी वंदित अहो! अरिहंतने वळी सिद्धने
शिरसा नमी, कहुं भावप्राभृत; वंदुं संयत सर्वने. (१)
नरेन्द्र सुरेन्द्र अने भवनेन्द्रथी वंदित एवा जिनवरेन्द्रोने, सिद्धोने तथा बाकीना
आचार्यदेव भावप्राभृतना मंगलमां पंचपरमेष्ठीने नमस्कार कर्या छे; तेमने
भावशुद्धि प्रगटी छे; भावशुद्धी अर्थात् शुद्धभाव तेने लीधे ज तेओ महिमावंत छे.
शुद्धभाव ज संवर–निर्जरा–मोक्षनुं कारण छे. शुभरागथी पुण्य छे, ते तो पापनी जेम
भावबंध छे, ते कांई निर्जरानुं कारण नथी. निर्जरानुं कारण तो शुद्धभाव छे.
शुद्धआत्मानी द्रष्टिथी थयेलो जे राग–द्वेष वगरनो शुद्धभाव एटले के सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्र ते ज निर्जरानुं ने मोक्षनुं कारण छे. १४८ प्रकृतिमांथी तीर्थंकरादि कोई पण
कर्मप्रकृति जे भावथी बंधाय ते अशुद्धभाव संसारनुं कारण छे, ते मोक्षनुं कारण नथी.
तीर्थंकरने केवळज्ञान थयुं ते शुद्ध भावथी ज थयुं छे, ते कांई रागथी के तीर्थंकरप्रकृतिथी
थयुं नथी. शुद्धआत्माना अनुभवमां लीनतारूप शुद्धभाव, तेनुं फळ केवळज्ञान छे. वच्चे
राग आव्यो ने तीर्थंकर प्रकृति बंधाणी तेनुं फळ