
छे अने पुद्गल स्पर्शादिरूप जड छे. तेनुं एक अवस्थाथी बीजी अवस्थारूप थवुं
तेने भाव कहे छे. हवे सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप परिणाम ते तो जीवना
स्वभावरूप भाव छे, शुद्धभाव छे, ते सुखनुं ने मोक्षनुं कारण छे; तथा राग–द्वेष–
मोहरूप परिणाम ते जीवना विभावरूप भाव छे; ते अशुद्धभाव छे, ते दुःखनुं अने
संसारनुं कारण छे. परमाणुमां वर्ण–गंध–रस–स्पर्श ते तेनो स्वभावभाव छे, अने
तेमां स्कंधरूप कर्म वगेरे अवस्था थाय ते विभावभाव छे; जडमां स्वभाव हो के
विभावभाव हो, तेने कांई सुख–दुःख नथी. सुख–दुःख जीवने होय, जडने सुख–
दुःख न होय.
सम्यक्त्वादि स्वभाव–भावथी जीवने सुख छे, अने मिथ्यात्वादि विभाव–
भावथी जीवने दुःख छे; माटे स्वभावरूप थवुं ने विभावरूप न थवुं एम जीवने
उपदेश छे. विभावभाव जीवने कदी सुखनुं के मोक्षनुं कारण थई शके नहीं. पोताना
स्वभावने ओळखतां सम्यक्त्वादि जे शुद्धभाव प्रगटे छे ते सुखमय छे ने ते ज
मोक्षनुं कारण छे. माटे हे जीव! तुं जिनभावना वडे एटले के शुद्धआत्मानी भावना
वडे भावशुद्धि प्रगट कर.
मृत्युनो भय केवो? आत्माने शरीर नथी पछी रोग केवो?
आत्माने रोग नथी पछी वेदना केवी? हे बंधु! आ जराक
जेटला शारीरिक दुःखथी कायर थईने तुं प्रतिज्ञाथी जरापण
च्युत थईश नहीं, आत्मिक भावथी जरापण डगीश नहीं, द्रढ
चित्त थईने आराधनाने उग्र करजे. पांडव–मुनिराज, सुकुमार
वगेरे धीरवीर धर्मात्माओनुं उत्तम चारित्र याद करीने तेमनुं
अनुकरण करजे.