Atmadharma magazine - Ank 325
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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दीवाळी अंक २४९७ आत्मधर्म : २१ :
एक क्षण पण भूलतो न हतो; धर्मात्माओनुं ते बहुमान करतो अने विद्वानोनुं सन्मान
करतो. अयोध्यानी प्रजा तेना राजमां घणी सुखी हती.
फागणमासमां वसंतऋतु आवी, ने बगीचाओ सुंदर पुष्पोथी खीली ऊठ्यां;
धर्मात्माओनां अंतरना बगीचा पण श्रद्धा–ज्ञान–आनंदनां फुलोथी खीली ऊठ्यां.
आनंद–महाराजा राजसभामां बेठा छे ने धर्मचर्चा वडे सौने आनंद करावे छे. एवामां
प्रधाने आवीने कह्युं के हे महाराज! अत्यारे नंदीश्वर–पूजाना दिवसो छे तेथी आठ
दिवस (फागण सुद आठमथी पूनम) सुधी जिनमंदिरमां भगवाननी पूजानो मोटो
अष्टाह्निका महोत्सव कर्यो छे; ते उत्सवमां पूजन करवा आप पण पधारो.
प्रधाननी वात सांभळीने राजा घणो खुशी थयो, ने कह्युं–अहो, वीतराग
जिनदेवनी पूजानो आवो अवसर महा भाग्यथी मळे छे. राज्यभरमां धामधूमथी मोटो
उत्सव करो ने भगवाननी पूजा रचावो, दान आपो, धर्मचर्चा करो, जिनगुणोनुं चिंतन
करो, ने जैनधर्मनी खूबखूब प्रभावना करो.
जिनमंदिरमां आठ दिवस धामधूमथी मोटो उत्सव चाल्यो; धजा–पताका अने
दीवडाथी मंदिर शणगार्युं हतुं, मंगल वाजां वागतां हता. आनंदराजा पोते भक्तिथी
पूजामां भाग लेता हता; हजारो–लाखो नगरजनो पण उत्सव जोवा अने पूजा करवा
आव्या हता; अने प्रभुनी पूजा करीकरीने पापनो नाश करता हता.
मंगल–उत्सव चालतो हतो एवामां विपुलमति नामना एक मुनिराज पण ते
उत्सव जोवा जिनमंदिरे आव्या. वाह! एक तो भगवाननी पूजानो मोटो उत्सव, अने
वळी मुनिराजनी पधरामणी,–तेथी चारेकोर घणो ज हर्ष छवाई गयो. राजाए अने
प्रजाए घणी भक्तिथी मुनिराजनां दर्शन कर्या, अने पछी तेमने धर्मोपदेश आपवा
विनंति करी.
वीतरागी मुनिराजे कह्युं: हे भव्य जीवो! आ आत्मा पोते ज ज्ञान अने
सुखस्वरूप छे, तेने तमे ओळखो. आखा जगतमां बधे फरी फरीने जोयुं पण आत्मा
सिवाय बीजे क््यांय अमने सुख देखाणुं नहीं. आत्मानुं सुख आत्मामां ज छे; बहारमां
शोधवाथी ते नहीं मळे. आत्मानी ओळखाण वडे ज आत्मानुं सुख पमाय छे. राग वडे
पण ते सुख पमातुं नथी. जिनशासनमां अरिहंत भगवाने एम कह्युं छे के पूजा–व्रतादि
शुभराग वडे जीवने पुण्य बंधाय छे; अने मोहवगरनो जे वीतरागभाव छे ते धर्म छे,
तेना वडे मोक्ष पमाय छे.