: २४ : आत्मधर्म दीवाळी अंक २४९७
मुमुक्षु–साधक भावना भावे छे–
एक सम्यग्द्रष्टि–स्वानुभवी–संत–धर्मात्माना हृदयमां चैतन्यसाधनानी केवी
लगनी होय छे..... संसारमां रह्या छतां संसार प्रत्ये केवो उदासीनभाव वर्ते छे, अने
मुनिपदथी मांडीने सिद्धपद सुधीनी केवी भावना ते भावे छे, –ते संबंधी अनेक काव्यो
आवे छे.....अहीं एवुं एक काव्य आप्युं छे. श्रीमद् राजचंद्रजीए ‘अपूर्व अवसर’
(अर्थात् परमपद प्राप्तिनी भावना) –ए काव्यमां पण सम्यग्दर्शननी प्राप्ति पछी
मुनिदशाथी मांडीने, श्रेणीनी, वीतरागतानी, केवळज्ञाननी अने सिद्धपदनी केवी उत्तम
भावना भावी छे!! एक विशेषता ए छे के मुनिदशानी आवी भावना जे जे
वैराग्यवंत सन्तोए व्यक्त करी छे ते लगभग काव्य द्वारा ज व्यक्त करी
छे.......शांतचित्ते एकान्तमां वैराग्यथी ज्यारे आवा काव्यो रटाता होय त्यारे तेमांथी
झरता वैराग्यमय अध्यात्मरसनुं आस्वादन थाय छे. मुमुक्षुए तत्त्वज्ञानपूर्वक आवी
भावनाओ वडे वैराग्यरसनुं निरंतर पोषण कर्तव्य छे.
मैं वो दिन कब पाउं.......! मैं वो दिन कब पावुं.......!
मैं चैतन्यबिंब बन जाउं.....! मैं वो दिन कब पावुं.......!
मैं घरको छोड वन जाउं.....! मैं वो दिन कब पावुं.......!
अंतरबाह्य त्याग परिग्रह..... नग्न स्वरूप बनावुं...
सकल विभावमयी परिणति तज.... स्वाभाविक चित्त लावुं...मैं वो दिन०
पर्वत गूफा नगर सुंदर, दीपक चांद बनावुं...
भूमि सैज आकाश चंदवा तकीया भूज लगावुं...मैं वो दिन०
उपल जान मृग खाज खूजावत ऐसा ध्यान लगावुं...
क्षुधा तृषादिक सह परीषह द्वादश भावन भावुं...मैं वो दिन०
द्वादशविध तप तपन धारकर दश लक्षण उर लावुं...
सम्यक्–दर्शन–ज्ञान–चरण–तप आराधन चित्त लावुं...मैं वो दिन०
चार घातीआ कर्म नाशकर केवलज्ञान ऊपावुं...
घाती–अघाती लहुं शिव गुरुवर फेर न भवमें आवुं...मैं वो दिन०
(अर्थ माटे सामे पाने जुओ.)