Atmadharma magazine - Ank 325
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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दीवाळी अंक २४९७ आत्मधर्म : २५ :
मैं वो दिन कब पाउं......
आ अध्यात्मकाव्य द्वारा साधक भावना भावे छे के अहा, स्वानुभूतिमां जे
चैतन्यनुं वेदन थयुं, ए चैतन्यमां लीन थईने चैतन्यबिंब बनी जवा माटे हुं घरने
छोडीने वनमां जाउं. एवो दिवस हुं क््यारे पामुं! अंतरमांथी तो राग–द्वेष–मोह अने
बहारमांथी वस्त्रादि–ए समस्त परिग्रहने त्यागीने हुं अंतरमां तेमज बहारमां दिगंबर
स्वरूप धारण करुं, ने विभावरूप समस्त परिणतिने छोडीने स्वाभाविकदशाने प्रगट करुं
–एवो धन्य दिवस मने क््यारे आवे?
जेनुं चित्त मुनिदशामां लागेलुं छे–एवो आ साधक भावना करे छे के पर्वतनी
गूफा ए ज जेने वसवा माटेनी सुंदर नगरी होय, चंद्र ए ज जेनो दीपक होय, पृथ्वी ए
ज जेनी पथारी होय, आकाश जेनो चंदरवो होय, अने हाथनी भूजा ए ज तकीयो
होय–आवी मुनिदशा हुं क््यारे पामुं? अने पछी निजस्वरूपमां लीन थईने एवुं ध्यान
लगावुं के जंगलना हरणीयां ने मृगलां आ देहने पथर समजीने तेनी साथे खाज
खुजावता होय. क्षुधा–तृषा वगेरे अनेक परीषहो शांतभावे सहन करुं ने
बारभावनाओ भावीने वैराग्यने पुष्ट करुं. बार प्रकारना तप तपुं अने दसलक्षण
धर्मोने अंतरमां धारण करुं; वळी सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र अने तप एवी चौविध
आराधनामां आत्माने जोडुं, ते आराधना वडे चार घातीआ कर्मोने नष्ट करीने
केवळज्ञान प्रगटावुं अने पछी बाकीना अघाती कर्मोने पण घातीने हुं उत्तम मोक्षपद
पामुं.....ने फरी संसारमां न आवुं.
आवी भावनामां सदाय तत्पर जेमनुं चित्त छे एवा स्वानुभवी
वैराग्यवंत सन्तोने नमस्कार हो.