दीवाळी अंक २४९७ आत्मधर्म : ३३ :
ज्ञानमां जड–चेतन, राग–द्वेष आदि घणां ज्ञेयो एक साथे जणाय तेथी कांई
(हवे पोतानां द्रव्य–क्षेत्र–काळ–भावथी अस्तिपणुं, अने परनां द्रव्य–क्षेत्र–
काळ–भावथी नास्तिपणुं, –एम सत्–असत्ना आठ बोल कहे छे.)
प–६, ज्ञानमात्रभावने स्वद्रव्यथी सत्पणुं, परद्रव्यथी असत्पणुं
आ ज्ञानमात्रभाव आत्मा छे ने ज्ञातृद्रव्य छे; ने परद्रव्यो स्वयं परिणमता थका
भाई! जे कोई परद्रव्यनुं परिणमन छे तेमां तु नथी; ज्ञानमय जे तारुं स्वद्रव्य
छे तेमां ज तुं छो. –एम स्वसन्मुख थईने तारा स्वद्रव्यने तुं देख. तेमां परनो प्रवेश
नथी.
जुओ, आ अनेकान्तना वीतरागी अमृत संतो पीवडावे छे.
दिवाळीनी बोणीमां आ अनेकान्तनां अमृत पीरसाय छे.
अहो! ज्ञाननुं सत्पणुं स्वद्रव्यथी छे, माटे ज्ञानने स्वद्रव्यमां शोध, परमां न
शोध. स्वद्रव्यने लक्षमां लेतां तारा अस्तित्वमां ज तने वीतरागी आनंदना अमृतनो