Atmadharma magazine - Ank 325
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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: ३६ : आत्मधर्म दीवाळी अंक २४९७
नथी. ज्ञानभावमां रागनो एक कणियो पण समातो नथी. भगवान! तुं तो तारा
स्वभावथी भरेलो परिपूर्ण छो; कोई रागने लीधे के कोई संयोगने लीधे तारी
महानता नथी. पोताना स्वभावने द्रष्टिमां लेतां स्वसन्मुख वीर्यभाव उल्लसीने
परम आनंदनो अनुभव थाय छे. परथी भिन्न आत्माने जैनशासन ओळखावे छे.
आवा आत्माने ओळखतां परद्रव्यनो अहंकार छूटी जाय छे, ने मोहरहित एवा
सम्यक्त्वादि निर्मळभावरूप अपूर्व बोधि प्रगटे छे.
अहो, जैनदर्शननो ज आ प्रताप छे के बोधिनी प्राप्ति करावीने
भवदुःखथी जीवोने छोडावे छे. जैनधर्मनुं जे वीतराग–विज्ञान ते
त्रणभुवनमां सार छे, ते आनंदनुं देनार छे. आवा उत्तम धर्ममां हे जीव! तुं
प्रवेशी जा. लौकिक पंचायत वगेरेना होदामां पोतानी गणतरी कराववा जीव
केवो रस ल्ये छे? पण ए पदवीमां तो कांई नथी, भाई! आ वीतराग
भगवानना मार्गमां तारी गणतरी थाय एवो प्रयत्न कर. आत्माने
ओळखीने सम्यग्दर्शनादि प्रगट कर–जेथी अरिहंत भगवानना परिवारमां
तारी गणतरी थाय, मोक्षना मार्गमां तारो प्रवेश थाय. भगवानना मार्गमां
भळ्‌यो–तेनाथी अधिक बीजुं शुं?
एकेक आत्मा पोताना परमात्म स्वभावथी परिपूर्ण छे–एवा स्वभावने
अरिहंतदेवनुं जैनशासन ज बतावे छे; बोधिपूर्वकनी एनी वीतरागता अजोड छे;
स्वरूपनी सावधानी करावीने परनुं ममत्व ते छोडावे छे. रागनी लगनी छोडावीने
चैतन्यस्वरूप आत्मानी लगनी ते लगाडे छे, ने बोधिलाभ करावे छे.
भावविशुद्धि एटले मोह वगरनो जे आत्मभाव ते ज धर्म छे. राग अने
आत्माना भेदज्ञान वगर कदी मोह छूटे नहि ने भावशुद्धि थाय नहीं. अने
भावशुद्धि वगरना जीवने तीर्थंकरपणुं वगेरे कदी होतुं नथी. अज्ञानीनो शुभराग
ते कांई भावशुद्धि नथी; ज्ञानीने पण जे शुभराग छे ते कांई धर्म नथी, पण ते
वखते जे सम्यक्त्वादिभाव छे ते मोहवगरनो भाव ज धर्म छे, ते ज मोक्षनो
उपाय छे.