Atmadharma magazine - Ank 325
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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: ६ : आत्मधर्म दीवाळी अंक २४९७
अरे जीव! पहेलांं आवा आत्माने ओळख तो खरो, आवा मार्गने ओळख तो
खरो. पोतानुं कल्याण कया प्रकारे थाय छे? पोताना कल्याणनुं कारण कोण छे? तेने
ओळख्या वगर जीव पोतानुं कल्याण कई रीते साधशे? आत्माना ज्ञान–आनंदमय
निर्मळ भाव आत्माना ज आश्रये थाय छे, ते कांई आत्माथी जुदां नथी, के कोई जुदा
पदार्थना आधारे ते थता नथी. पर्यायने अंतर्मुख करीने अनुभव कर्यो ते अभेद
अनुभवमां ‘आ द्रव्यने आ पर्याय’ एवो भेद नथी, विकल्प नथी. ज्ञान–आनंद
वगेरेनो अभेद अनुभव छे; आवा अनुभवमां शास्त्रना भणतरनुंय आलंबन नथी.
अनुभवमां एक परमभावरूप आत्मा ज प्रकाशे छे; अने आवा अनुभवथी ज सिद्धि
छे. –आवो अनुभव थतां भावलिंग प्रगटे छे ने तेने ज मुनिदशा थाय छे. आवी
भावशुद्धि वगर मुनिदशा के मुक्ति नथी. विकल्प वगरनो जे निर्विकल्प अभेद अनुभव
तेना वडे सम्यग्दर्शननी, ज्ञाननी, चारित्रनी सिद्धि थाय छे–आम जाणवुं.
वळी ए ज वात वधु द्रढ करे छे–
एगो मे सासदो अप्पा णाणदंसणलक्खणो।
सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा।।५९।।
नियमसारमां पण आ गाथा (१०२मी) छे–
मारो सुशाश्वत एक दर्शन–ज्ञानलक्षण जीव छे,
बाकी बधा संयोगलक्षण भाव मुजथी बाह्य छे.
आवा आत्मारूपे धर्मी पोताने अनुभवे छे. ज्ञानदर्शनलक्षण सिवाय बीजा जे कोई
संयोगाश्रित रागादिभावो छे ते माराथी बहार छे, मारामां ते नथी, ने तेनामां हुं नथी; हुं
तो तेनाथी जुदो ज्ञानदर्शनमय छुं; मारुं ज्ञानदर्शनलक्षण शाश्वत छे; ने राग–द्वेषादि तो
क्षणिकभावो छे, ते कांई मारा शाश्वत आत्मामांथी उत्पन्न थयेला नथी, ते तो संयोगाश्रित
भावो छे. मारो स्वभाव तो एक छे, ने रागादिभावो तो अनेक प्रकारनां क्षणिक छे. आम
भेदज्ञान करीने पोताना आत्माने अनुभवमां ले. हे भाई! आ जन्म–मरणनां दुःखडा
टाळवा माटे तुं आवा आत्माने जाण, ने तेनी भावना वडे तेमां ज एकाग्र था.–
चार गति दुःखथी डरे तो तज सौ परभाव;
शुद्धातमचिंतन करी शिवसुखनो ले ल्हाव.
ध्यानवडे अभ्यंतरे देखे जे अशरीर;
शरमजनक जन्मो टळे, पीए न जननी–क्षीर.
(योगसार)