:मागशरः२४९७ आत्मधर्म :९:
हे जीव! आनंदथी भरेला स्वघरमां वस
गुरुदेवे भाईबीजना दिवसे भावशुद्धिनो
उपदेश आपतां कह्युं के हे भाई! तुं
चैतन्यतत्त्वनो प्रेम कर, तेना रसमां उत्साह
लाव. बाह्य विषयो अने बाह्यभावो संसारनुं
कारण छे तेनो रस छोडीने आनंदधाम एवा
आत्मामां वस......आनंदना घरमां वास्तु कर.
ईन्द्रियमां के रागमां तारो वास नथी, आनंदथी
भरेला अतीन्द्रियस्वभावमां ज तारो वास छे.
(सोनगढमां भाईश्री प्रभुदास ताराचंद कामदारना मकानना वास्तुप्रसंगे
अष्टप्राभृत गा. ९०ना प्रवचनमांथी वीर सं. २४९७ का. सुद बीज)
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सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूपी भावशुद्धि ते मोक्षनुं कारण छे, तेनो उपदेश आपे
छे. हे जीव! प्रथम तुं भावशुद्धि कर; भावशुद्धि वगरनी क्रियाओ तो जनरंजन माटे छे,
तेमां आत्मानुं कांई हित नथी.
आत्मा पांच ईन्द्रियोथी पार छे, मनना संकल्प–विकल्पोथी पण पार छे, पांच
ईन्द्रियोथी ने मनना विषयोथी पण भिन्न एवा ज्ञानानंद स्वरूप आत्माना अनुभव
वडे भावशुद्धि थाय छे. एवी भावशुद्धि वगरना जीवो दुःखना ज पंथमां पडेला छे.
सुखना पंथ जेने अंतरमां हाथ आव्या छे एवा धर्मीजीवने आत्माना सम्यक् चेतन
स्वभाव सिवाय जगतमां क््यांय रुचि रहेती नथी. हुं तो आत्मा छुं, मारुं ज्ञान छे;
मारा ज्ञान–आनंदनी साथे हुं छुं, संयोगनी साथे हुं नथी, –आवी भावनावाळो जीव
हितना पंथमां पडेलो छे. चैतन्यनी भावना वडे तेने ज्ञान अने आनंदना किरणोवाळुं
सुप्रभात खीले छे.
भाई, तुं चैतन्यतत्त्वनो प्रेम कर, तेना रसमां उत्साह लाव, बहारना
पदार्थोमां ने बहारना भावोमां रस ते तो चारगतिरूप संसारनुं कारण छे.
आनंदधाम–आनंदनुं