स्वभाव पण नीरालंबी छे. लोकमां अनंता जीवो छे, तेओ आत्मज्ञान वगर
त्रण लोकमां जन्म–मरण करीने रखडे छे ने दुःखी थाय छे. लोकमां सौथी जुदो
ने लोकने जाणनारो ज्ञानस्वरूप आत्मा हुं छुं–एवुं ज्ञान करे तो लोकमां
परिभ्रमण मटे, अने जीव पोते सिद्धभगवान थईने लोकाग्रे जईने वसे.
देनार छे. आवी दुर्लभ–बोधि मने केम प्राप्त थाय? तेवी भावना करीने,
तेनो उद्यम करवा जेवो छे.
नथी. रागद्वेषभावो ते खरेखर जीवनो धर्म नथी. आवा चेतनस्वभावरूप
धर्मने ओळखीने, सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप वीतरागधर्मनी अथवा
उत्तमक्षमादि दशधर्मनी उपासना करवी. ते धर्म ज जीवने सुख अने मोक्ष
आपे छे.
सागरदत्तगुरुनी समीप मुनिदीक्षा लीधी...मुनि थईने शुद्धोपयोगवडे आत्मध्यानमां
एकाग्र थया. अतीन्द्रिय आनंदनां समुद्रमां गरकाव थया.....अहा! एमनो आत्मा
रत्नत्रयनां तेजथी झळकी ऊठ्यो. एमनी वीतरागता आश्चर्य उपजावती हती. आत्मिक
साधनामां तेओ एवा रत हता के बारप्रकारनां तप तो तेमने सहेजे थई जतां हतां;
मुख्यपणे तेओ ध्यान अने स्वाध्यायमां ज मग्न रहेता. आनंदना वेदनमां आहारनी
ईच्छा सहेजे छूटी जती एटले कष्ट वगर तेमने उपवास थई जता हता. क््यारेक आहार
करे तोपण रसनी ईच्छा वगर, अमुक ज वस्तुओ अने ते पण भूख करतां अल्प ज
लेतां; एकान्तस्थानमां वन–जंगलमां वसता; शरीरनुं ममत्व तेमणे छोडी दीधुं हतुं, अल्प
पण दोष के प्रमाद थई जाय तो सरळचित्ते प्रायश्चित्त करता; रत्नत्रयधारी गुरुओ प्रत्ये
सेवा–विनय अने वात्सल्यसहित वर्तता; गमे तेवी ठंडी गरमी के वर्षामां पण तेओ कदी
आत्मध्यान चुकता नहीं. –आम बार प्रकारनां तप सहित चारित्रने आराधता हता.