Atmadharma magazine - Ank 326
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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:१६: आत्मधर्म :मागशरः२४९७
आवी उत्तम आराधनासहित स्वाध्यायमां एकाग्रताथी ते आनंदमुनिराजने
बारअंगनुं ज्ञान खीली गयुं, –श्रुतज्ञाननो पवित्र समुद्र उल्लस्यो......बीजी पण अनेक
ऋद्धिओ तेमने प्रगटी, पण तेमनुं लक्ष तो चैतन्यऋद्धिमां ज हतुं. आर्त्तध्यान के
रौद्रध्यान तो तेमने हतुं ज नहीं, तेओ धर्मध्यानमां एकाग्र रहेता, ने क्यारेक
शुक्लध्यान पण ध्यावता. ध्यान वखते तेओ पोताना शुद्धात्मामां एकमां ज उपयोगने
एकाग्र करीने निर्विकल्प–आनंदने अनुभवता हता, ने बीजी बधी चिंताओ तेमने
अटकी जती हती. अहा, ध्यान वखते तो जाणे सिद्धमां ने तेमनामां कांई फेर रहेतो न
हतो. तेमनी शांत ध्यानमुद्रा देखीने पशुओ पण आश्चर्य पामता हता.
ते आनंद मुनिराज सदाय रत्नत्रयरूप मोक्षमार्गमां निश्चल वर्तता हता, ने
बावीस परीसह सहता हता. गमे तेवी भूख के तरस, ठंडी के गरमी, नग्न शरीर पर
मच्छर वगेरे मच्छर वगेरे जीव जंतुना डंश लागे तोपण मोक्षमार्गथी तेओ जरा पण
डगता न हता; कोई अरतिनो प्रसंग आवे तोपण तेओ अरतिभाव करता न हता;
स्त्रीओना गमे तेवा हावभावथी पण तेमनुं मन चलित थतुं नहीं; विहार आसन ने
भूमिशयन संबंधी कष्टमां पण खेद करता नहीं; क्रोधथी कोई कडवां वचन कहे के मारे
तोपण पोते पोताना मार्गमांथी च्यूत थता न हता; आहारादिनी याचना करता न
हता; अनेक उपवास बाद गाममां भोजन माटे जाय ने योग्य आहारादि न मळे तोपण
शांतिथी पोताना धर्मध्यानमां स्थिर रहेता हता; क््यारेक शरीरमां रोग थाय, पीडा
थाय, कांटा–कांकरा लागे तोपण आर्तध्यान थवा देता न हता; पोतानुं के परनुं शरीर
मलिन देखीने पण तेओ चित्तने मलिन थवा देता न हता; लोको द्वारा थता मान–
अपमानमां तेमने समभाव हतो; हुं रत्नत्रयमार्गमां प्रवीण घणो महान तपस्वी छुं
छतां संघमां मारुं मान नथी, –एवा विकल्प तेओ करता नहीं; ज्ञाननो विशेष विकास
थवा छतां तेमने मद थतो न हतो; अने अवधिज्ञान वगेरे प्रगट्युं न होय तो खेद
करता न हता; अनेक वर्षो सुधी तपश्चर्या करवां छतां कोई ऋद्धि वगेरे न प्रगटी होय,
ने बीजाने ऋद्धि प्रगटती देखे तोपण खेद करता न हता. –ईत्यादि प्रकारे बावीस
परिषहने जीतता थका ते आनंदमुनिराज आत्मशुद्धि वधारता हता अने कर्मोनी निर्जरा
करता हता. –अहो, आवुं वीतरागी मुनिजीवन धन्य छे, तेमना चरणमां अमारुं मस्तक
नमे छे.
ते मुनिराज वारंवार शुद्धोपयोगरूपी जळ वडे चारित्रवृक्षनुं सींचन करता हता.
तेओ चारित्रना महान कल्पवृक्ष हता ने ते कल्पवृक्षमां जाणे उत्तम फळ लाग्यां