ऋद्धिओ तेमने प्रगटी, पण तेमनुं लक्ष तो चैतन्यऋद्धिमां ज हतुं. आर्त्तध्यान के
रौद्रध्यान तो तेमने हतुं ज नहीं, तेओ धर्मध्यानमां एकाग्र रहेता, ने क्यारेक
शुक्लध्यान पण ध्यावता. ध्यान वखते तेओ पोताना शुद्धात्मामां एकमां ज उपयोगने
एकाग्र करीने निर्विकल्प–आनंदने अनुभवता हता, ने बीजी बधी चिंताओ तेमने
अटकी जती हती. अहा, ध्यान वखते तो जाणे सिद्धमां ने तेमनामां कांई फेर रहेतो न
हतो. तेमनी शांत ध्यानमुद्रा देखीने पशुओ पण आश्चर्य पामता हता.
मच्छर वगेरे मच्छर वगेरे जीव जंतुना डंश लागे तोपण मोक्षमार्गथी तेओ जरा पण
डगता न हता; कोई अरतिनो प्रसंग आवे तोपण तेओ अरतिभाव करता न हता;
स्त्रीओना गमे तेवा हावभावथी पण तेमनुं मन चलित थतुं नहीं; विहार आसन ने
भूमिशयन संबंधी कष्टमां पण खेद करता नहीं; क्रोधथी कोई कडवां वचन कहे के मारे
तोपण पोते पोताना मार्गमांथी च्यूत थता न हता; आहारादिनी याचना करता न
हता; अनेक उपवास बाद गाममां भोजन माटे जाय ने योग्य आहारादि न मळे तोपण
शांतिथी पोताना धर्मध्यानमां स्थिर रहेता हता; क््यारेक शरीरमां रोग थाय, पीडा
थाय, कांटा–कांकरा लागे तोपण आर्तध्यान थवा देता न हता; पोतानुं के परनुं शरीर
मलिन देखीने पण तेओ चित्तने मलिन थवा देता न हता; लोको द्वारा थता मान–
अपमानमां तेमने समभाव हतो; हुं रत्नत्रयमार्गमां प्रवीण घणो महान तपस्वी छुं
छतां संघमां मारुं मान नथी, –एवा विकल्प तेओ करता नहीं; ज्ञाननो विशेष विकास
थवा छतां तेमने मद थतो न हतो; अने अवधिज्ञान वगेरे प्रगट्युं न होय तो खेद
करता न हता; अनेक वर्षो सुधी तपश्चर्या करवां छतां कोई ऋद्धि वगेरे न प्रगटी होय,
ने बीजाने ऋद्धि प्रगटती देखे तोपण खेद करता न हता. –ईत्यादि प्रकारे बावीस
परिषहने जीतता थका ते आनंदमुनिराज आत्मशुद्धि वधारता हता अने कर्मोनी निर्जरा
करता हता. –अहो, आवुं वीतरागी मुनिजीवन धन्य छे, तेमना चरणमां अमारुं मस्तक
नमे छे.