आत्मा न होय तेम सुख वगरनुं आत्मतत्त्व कदी होय नहीं.
हे भाई! तुं विचार करीने आ वात लक्षमां तो ले के,
अनंतकाळथी बहारमां सुख शोधी–शोधीने थाक््यो छतां
तने सुखनो छांटोय केम न मळ्यो? –सुखनी हवा पण केम
न आवी? जेम हरणियुं मृगजळने पाणी मानीने दोडे छे;
अरे हरणिया! तुं दोडीदोडीने थाके छे छतां तने ठंडी हवा
पण केम नथी आवती? –क्यांथी आवे? त्यां पाणी होय तो
ठंडी हवा आवे ने? त्यां पाणी तो नथी पण धगधगती रेती
छे. तेम धगधगती रेती जेवी आकुळतावाळा जे
बाह्यविषयो तेमां अज्ञानी सुख मानीने त्यां ज पोताना
उपयोगने दोडावे छे; पण अनंतकाळ वीत्यो छतां तेने सुख
नथी मळतुं. –क््यांथी मळे? विषयोमां सुख होय तो
मळेने? सुख तो आत्मामां छे; तेमां जुए तो सुखनो
अनुभव थाय.
आकुळतारूप नथी. ज्ञानमां आकुळता होय नहीं. एटले ज्ञाननी खाणमां ऊंडे ऊतरतां
तेमां सुख पण भर्युं छे. ज्ञाननी जेम सुख पण आत्मानो स्वभाव छे. जेम आत्मानुं
ज्ञान स्वयं पोताथी छे, बीजामांथी ज्ञान आवतुं नथी तेम आत्मानुं सुख पण स्वयं
पोताना स्वभावथी छे, बीजामांथी सुख आवतुं नथी. आत्मामां जेम ज्ञान सत् छे तेम
सुख पण सत् छे. पोते पोताना सत्नो–अस्तित्वनो स्वीकार करे तो सुखनो अनुभव
थाय. सुखस्वभाव साथे अनंत धर्मो छे.