महिमापूर्वक तेनी आराधनानो उपदेश आपतां (पृ. ९ मां) तेओ कहे छे के–
मुमुक्षुने मोक्षस्वरूप परम सुखस्थाने निर्विघ्न पहोंचाडवामां ए सर्वप्रथम पगथियारूप छे.
ज्ञान, चारित्र अने तप ए त्रणे सम्यक्त्व सहित होय तो ज मोक्षार्थे सफळ छे, वंदनीय छे,
कार्यगत छे; अन्यथा ते ज (ज्ञान, चारित्र अने तप) संसारना कारणरूपपणे ज परिणम्ये
जाय छे. टूंकामां सम्यक्त्व रहित ज्ञान ते ज अज्ञान, सम्यक्त्वरहित चारित्र ते ज कषाय अने
सम्यक्त्व विनानुं तप ते ज कायकलेश छे. ज्ञान, चारित्र अने तप ए त्रणे गुणोने उज्जवळ
करनार एवी ए सम्यक्श्रद्धा प्रथम आराधना छे. बाकीनी त्रण आराधना एक सम्यक्त्वना
विद्यमानपणामां ज आराधकभावे प्रवर्ते छे. ए प्रकारे सम्यक्त्वनो कोई अकथ्य अने अपूर्व
महिमा जाणी ते पवित्र कल्याणमूर्तिरूप सम्यग्दर्शनने आ अनंत अनंत दुःखरूप एवा
अनादि संसारनी आत्यंतिक निवृत्ति अर्थे हे भव्यो! तमे भक्तिपूर्वक अंगीकार करो, समये
समये आराधो. चार आराधनामां सम्यक्त्व–आराधनाने प्रथम कहेवानुं शुं कारण? एवो
प्रश्न थतां १प मी गाथामां कहे छे के–
समान छे, ते आत्मार्थरूप फळ देनार नथी; परंतु जो ते ज सामग्री सम्यक्त्वसहित होय तो
महामणि समान पूजनिक थई पडे, अर्थात् वास्तव्य फळदाता अने उत्कृष्ट महिमायोग्य थाय.
करे तोपण घणी ज महत्त्वताने पामे, पण पाषाणनो घणो भार मात्र तेना उठावनारने
कष्टरूप ज थाय छे; तेवी ज रीते मिथ्यात्वक्रिया अने सम्यक्त्वक्रिया ए बंने क्रिया अपेक्षाए
तो एक ज छे; तथापि अभिप्रायना सत्–असत्पणाना तथा वस्तुना भान–बेभानपणाना
कारणने लईने मिथ्यात्वसहित क्रियानो घणो भार वहन करे तोपण ते वास्तव्य महिमाने के
आत्मलाभने पामे नहि, परंतु सम्यक्त्वसहित अल्प क्रिया पण यथार्थ ‘आत्मलाभदाता’
अने अति महिमायोग्य थाय. माटे सम्यक्त्वआराधना प्रधान छे, ने ते प्रथम कर्तव्य छे.