Atmadharma magazine - Ank 326
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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:मागशरः२४९७ आत्मधर्म :२७:
अमृतचंद्रसूरि पीवडावे छे – अनेकान्तनां अमृत
(१४ बोल वडे ज्ञानमात्र आत्माना अनेकान्तस्वरूपनी समजण)
–लेखांक बीजो : गतांकथी चालु–
अहो, अनेकान्त तो वस्तुनुं स्वरूप छे; ते जैन सिद्धांतना
प्राण छे. अनेकान्त ज्ञानस्वरूप आत्माने प्रसिद्ध करीने साचुं जीवन
जीवाडे छे, अनेकान्तनुं स्वरूप समजावीने आचार्यदेवे वीतरागरसनां
अमृत पीवडाव्यां छे. अनेकान्तना १४ बोलमांथी छ बोलनां प्रवचन
गतांकमां आवी गयेल छे, बाकीनां अहीं आपवामां आव्या छे.
समयसारनी ४१प गाथामां आचार्यदेवे घणा प्रकारे स्पष्टता करीने ज्ञानस्वरूप
आत्मा बताव्यो रागादि समस्त परभावोथी भिन्न ज्ञानमात्र ज आत्मा छे ने एवा
आत्माना अनुभवथी ज आत्मा परम आनंदरूपे परिणमे छे–एम समजावीने,
ज्ञानमात्र आत्मानो अनुभव करवानुं कह्युं छे. ते ज्ञानमात्र आत्माने स्वयमेव
अनेकान्तपणुं कई रीते छे ते वात आचार्यदेवे आ परिशिष्टमां स्पष्ट करी छे.
‘ज्ञानमात्र’ कहेवा छतां आत्माने स्वयमेव अनेकान्तपणुं प्रकाशे छे. केमके–
(१) ज्ञानमात्र आत्माने स्वरूपथी तत्पणुं छे. (२) पररूपथी अतत्पणुं छे.
(३) ज्ञानमात्र आत्माने द्रव्यथी एकपणुं छे. (४) पर्यायथी अनेकपणुं छे.
(प) ज्ञानमात्र भावने स्वद्रव्यथी सत्पणुं छे. (६) परद्रव्योथी असत्पणुं छे.
(७) ज्ञानमात्र भावने स्वक्षेत्रथी अस्तिपणुं छे. (८) परक्षेत्रथी नास्तिपणुं छे.
(९) ज्ञानमात्र भावने स्वकाळथी सत्पणुं छे. (१०) परकाळथी असत्पणुं छे.
(११) ज्ञानमात्र आत्माने स्व–भावथी सत्पणुं छे. (१२) परभावथी असत्पणुं छे.
(१३)
ज्ञानमात्र भावने ज्ञानसामान्यरूपे नित्यपणुं छे. (१४) ज्ञानविशेषरूपे अनित्यपणुं छे.
(अनेकान्तना आ १४ बोलमांथी ६ बोलनो विस्तार गतांकमां आपे वांच्यो,
पछीना बोलनो विस्तार आप अहीं वांचशो.)