
करे छे. पण पर्यायमां ओछुं ज्ञान अने राग–द्वेष देखीने अज्ञानी पोताने तेटलो ज
गरीब मानी बेठो छे. ज्ञानी तेने समजावे छे के बापु! तुं राग नथी, तुं तो पूर्ण आनंद
अने केवळज्ञानना निधाननो स्वामी छो. त्यारे ते कहे छे के केवळज्ञान ने आनंद वगेरे
वैभव तो सिद्धभगवान पासे होय ने अरिहंत भगवान पासे होय, तथा शास्त्रमां ते
कह्यो छे. –ज्ञानी तेने कहे छे के अरे! अरिहंत अने सिद्धभगवंतोनो वैभव एमनी पासे
छे, ने एमना जेवो ज तारो आत्मवैभव तारामां छे. तारा ज्ञान–आनंदादि वैभवो
तारामां पोतामां ज छे. शास्त्रो अने ज्ञानीओ तो ते तने देखाडे छे, पण वैभव तो
तारामां छे; तारो वैभव कांई तेमनी पासे नथी. माटे तुं अंतर्मुख थईने तारा
आत्माना वैभवने देख. –आनुं नाम भूतार्थद्रष्टि छे, आ सम्यग्दर्शन छे, आ जैनधर्मना
प्राण छे, अने आ मोक्षमां प्रवेश करवानो दरवाजो छे.
अने मोक्ष पाम्या छे. पण जेओ आवा शुद्ध ज्ञायक भावरूप आत्माने अनुभवता नथी,
अने कादववाळा पाणीनी माफक कर्म साथे संबंधवाळा अशुद्ध भावरूपे ज आत्माने
अनुभवे छे तेओ शुद्ध आत्माने नहि देखता होवाथी संसारमां रखडे छे. शुद्धआत्मा जे
परम एक ज्ञायकभाव, तेने अंतरमां सम्यक्पणे देखनारा जीवो ज सम्यग्द्रष्टि छे.
व्यवहारना अनेक प्रकारो, परनो संयोग, कर्मनो संबंध, रागादि अशुद्धभावो के द्रव्य–
गुण–पर्यायना भेदरूप व्यवहार ते बधोय अभूतार्थ छे, –तेनो आश्रय करतां रागादि
विकल्पनी उत्पत्ति थाय छे. गुण अने गुणी जुदा तो नथी, छतां तेने जुदा पाडीने भेदथी
कहेनारो व्यवहार तेना लक्षे वस्तुना अखंड सत्यस्वरूपनो अनुभव थतो नथी माटे ते
व्यवहारने असत्य कह्यो छे. भेदना विकल्पमां न अटकतां अभेदने लक्षमां लई ल्ये तो
तेने माटे ‘व्यवहार द्वारा परमार्थनुं प्रतिपादन’ कहेवामां आव्युं; शुद्धआत्माना स्वरूपने
जेओ देखवा मांगे छे तेओए व्यवहारना विकल्पोमां अटकवानुं नथी. गुणभेदरूप
व्यवहार