Atmadharma magazine - Ank 327
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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: पोष : २४९७ आत्मधर्म : १३ :
एवो तुं नथी. निमित्त के राग वगेरेनी अपेक्षा कर्या वगर स्वयं पोताना स्वभावथी ज
तारा द्रव्य–गुण–पर्याय तारामां छे; आवा आत्माने ज्ञानलक्षणथी अहीं ओळखाव्यो छे,
तेने ओळखतां ज मोक्षमार्ग प्रगटे छे, ने धर्म थाय छे.
बहारमां बीजा कोईने साधन बनावीने, के शुभरागने साधन बनावीने
आत्मामां सम्यग्दर्शनादि कोई धर्म करवा मांगे तो ते धर्म थई शके नहि, केमके
धर्मनुं कारण ज्ञानथी जुदुं नथी. धर्मना छए कारक ज्ञानस्वरूप आत्मामां ज समाय
छे. अतीन्द्रिय आत्मतत्त्व, ते ईंद्रियो वडे के ईंद्रियने अवलंबनारा भावो वडे केम
पमाय? तेने जाणनारुं ज्ञान पण अतीन्द्रियस्वरूप छे, ईंद्रियनुं अवलंबन तेमां
नथी. द्रव्यस्वभावने जेम परनी अपेक्षा नथी तेम ते स्वभावमां अंतर्मुख एकाग्र
थयेली निर्मळपर्यायमां पण परनी अपेक्षा नथी, अहो! आवा स्वभावने अंतरमां
उग्रपणे साधतां साधतां अमृतचंद्राचार्य देवे आत्माना अद्भुतस्वभावनुं आ
वर्णन कर्युं छे. आ हिंदुस्तानमां ज्यारे तेओ मुनिपणे विचरता हशे त्यारे एमनो
देखाव केवो हशे! मुनिदशा, एनी शी वात! ए तो परमेष्ठीपद छे, आत्माना प्रचूर
आनंदमां झुलती दशा छे. एवी दशामां वर्ततां जगतना महा भाग्ये आ समयसार
शास्त्र रचाई गयुं छे.
आत्माना स्वभावने अनुभवनारी निर्मळपर्याय छे ते स्वद्रव्यमां व्यापक छे, ते
रागादिमां नथी व्यापती, परमां नथी व्यापती, ज्ञानपर्याय पोताना द्रव्यमां पूराभागमां
रहे छे, पण ते शरीरमां के रागमां रहेती नथी; ने शरीर के राग ते ज्ञानपर्यायमां रहेता
नथी. –आम भिन्नता छे, तेमने एकबीजानी साथे कारणकार्यपणुं नथी. आवा
ज्ञानस्वरूपे पोताना आत्माने ओळखतां कर्म साथेनो संबंध सर्वथा छूटीने धर्म थाय
छे, ने सिद्धपद प्रगटे छे.
रं ग लाग्यो..
रंग लाग्यो आतम! तारो रंग लाग्यो....
तारी श्रद्धा करवानो मारो भाव जाग्यो.... रंग लाग्यो......
रंग लाग्यो चेतन! तारो रंग लाग्यो.......
तारो अनुभव करवानो मने भाव जाग्यो.... रंग लाग्यो......