Atmadharma magazine - Ank 327
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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: १६ : आत्मधर्म : पोष : २४९७
सूरज, चांदो, मीनयुगल, कळश बे अमृत भर्यां,
कमळशोभित दीठुं सरवर, उदधि पण ऊछळी रह्यां,
मणिजडित सिंहासन अने विमान दीसे शोभतुं,
धरणेन्द्र–धाम ने रत्नराशि मातनुं मन मोहतुं.
निर्धूम सुंदर ज्योत जाणे ज्ञाननी ज्योत जागती,
ए सोळ स्वप्नो देखी माता हैये जिनने धारती.
महा मंगळकारी सोळ स्वप्नो देख्या......ने ते ज वखते ब्रह्मदत्ता माताना पवित्र
प्रभात थतां माता जाग्या ने अंतरमां पंचपरमेष्ठीनुं चिंतन कर्युं –जोके एवा
ज एक परमेष्ठी एना हैयामां वसी ज रह्या हता. राजसभामां जईने माताए
सोळ उत्तम स्वप्नोनी वात महाराजा विश्वसेनने करी; अने, ते स्वप्नां मंगळ
फळमां तीर्थंकर जेवा पुत्ररत्ननी प्राप्ति थशे–ते जाणीने माताना आनंदनो पार न
रह्यो! जाणे हृदयभूमिमां धर्मना अंकूरा फूटी नीकळ्‌या! वाह माता, तुं धन्य बनी
गई! ईन्द्रो अने ईन्द्राणीओए वाराणसीमां आवीने ए मातापितानुं सन्मान कर्युं
ने गर्भकल्याणक निमित्ते भगवाननी पूजा करी, तथा छप्पनकुमारी देवीओ मातानी
सेवा करवा लागी. तेओ वारंवार तीर्थंकरना गुणगान करती, ने माताजी साथे
आनंदकारी चर्चा करती.
एकवार माताए देवीने पूछयुं–हे देवी! आ जगतमां उत्तमरत्न क््यां रहेतुं हशे?
देवी कहे: माता, तमारा उदर–भंडारमां ज उत्तमरत्न रह्युं छे.
बीजी देवीए पूछयुं: मातानुं शरीर सोना जेवुं केम लागे छे?
त्यारे त्रीजी देवीए कह्युं के एने ‘पारस’ नो स्पर्श थयो छे तेथी ते सोनानुं
लागे छे.