Atmadharma magazine - Ank 327
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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: ३२ : आत्मधर्म : पोष : २४९७
आपी छे; राजा एटले श्रेष्ठ, पोताना श्रेष्ठ गुणोवडे जे शोभे छे एवो जीवस्वभाव पोते
केवो छे? तेनी ओळखाण पहेलांं करवी जोईए. आत्मानी ओळखाण वगर व्रतादि
शुभराग करवा छतां जीव लेशपण सुख न पाम्यो, पण दुःख ज पाम्यो. एनो अर्थ ए
थयो के शुभराग ते सुखनुं कारण नथी, एटले के ते धर्म नथी, ते मोक्षनुं कारण नथी.
रागमां तो दुःख छे. मोक्षनुं कारण रागथी जुदुं छे.
मोक्षार्थी जीवे मोक्षसुखना अनुभव माटे शुं करवुं तेनी आ वात छे. जेने एक
आत्मार्थ साधवा सिवाय बीजी झंखना नथी, आत्माना अनुभवनी ज तालावेली छे,
ते जीव पहेलांं तो श्रीगुरुए जेवो आत्मा कह्यो तेवा पोताना आत्माने जाणे छे के
आवो ज्ञानस्वरूपे अनुभवातो आत्मा ज हुं छुं; सर्वे परभावोथी भिन्न एक
ज्ञानमयभाव हुं छुं–एम आत्माने जाणे छे अने ज्ञानपूर्वक तेनी श्रद्धा करे छे के आ ज
हुं छुं. आवा श्रद्धा–ज्ञानपूर्वक तेना अनुभवमां एकाग्रता ते चारित्र छे.
मारो ज्ञानस्वरूप आत्मा, रागादि परभावोथी संयुक्त नथी पण जुदो छे, एम
धर्मी अनुभवे छे. –जुदो होवां छतां अज्ञानीजीवो आत्माने रागादि सहित ज अनुभवे
छे एटले के अशुद्धआत्माने ज अनुभवे छे, अने ते ज संसारनुं मूळ छे. परभावोथी
असंयुक्त एवा शुद्धआत्मानो अनुभव ते मोक्षनुं मूळ छे. पुरुषार्थ सिद्धि–उपायमां पण
अमृतचंद्राचार्ये ए वात १४ मी गाथामां स्पष्ट करी छे–
एवमयं कर्मकृतैर्भावैः असमाहितोपि युक्त इव
प्रतिभाति बालिशानां प्रतिभास; स खलु भवबीजम्।।
ए रीते आ आत्मा कर्मकृत एवा रागादिभावोथी तेम ज शरीरादिथी असंयुक्त
छे, तोपण ते अज्ञानीओने संयुक्त जेवो देखाय छे;–अज्ञानीओनो ते प्रतिभास
खरेखर भवनुं बीज छे. अरे, पोताने रागादिवाळो अशुद्ध ज अनुभवे ते भवथी केम
छूटे? रागथी भिन्न शुद्धात्मानो अनुभव ते मोक्षनुं बीज छे.
परभाव वगरना शुद्धोपयोगरूप जे रत्नत्रय छे ते ज निरपराधपणुं छे,
अने जे शुभराग होय ते तो अपराध छे. धर्मीने पण जे कोई अशुभ के शुभराग
होय तेटलो अपराध छे. सम्यग्द्रष्टिने ज तीर्थंकर प्रकृति बंधाय छे, पण तेनुं कारण
कांई सम्यग्दर्शनादि शुद्धभाव नथी, तेनुं कारण तो राग छे, एटले रागनो ते
अपराध छे.