चोंटाडी दीधा होय ने आपणा जेवुं ज ए पंचेन्द्रियप्राणी जीववा माटे तरफडतुं होय –
एवुं द्रश्य कोण देखी शके? मात्र देखवानुं नहीं पण पोताना क्रूरहस्ते एवुं कार्य करवानुं
क््यो जैन स्वीकारी शके? जैन तो शुं–पण अहिंसा धर्ममां माननार कोई सज्जन ते करी
शके नहीं. शास्त्रोए संकल्पी–हिंसानो सर्वथा निषेध कर्यो छे, –एटले मोटा प्राणीनी तो
शी वात–पण कीडी वगेरे जेवा सूक्ष्मजंतुने पण संकल्पपूर्वक कोई जैन हणे नहीं. बीजा
पण अनेक युवानना उदाहरण बालविभाग पासे आवेला छे के जेमणे त्रसजीवनी
हिंसाना महापापथी दूर रहेवा माटे कोलेजना भणतरमांथी ते प्रकारनी लाईन छोडी
दीधी होय. अरे! क््यां आपणुं वीतराग–विज्ञाननुं आत्महितकारी भणतर! ने क््यां ए
पापवर्द्धक अनार्यविद्या!
सरस छे, जैनधर्मनुं रहस्य तेमां गूंथी लीधेल छे तथा निजानंदमां झूलता निर्ग्रंथ
मुनिराजनुं वर्णन अवारनवार आवे छे ते वांचीने हृदय आनंद अनुभवे छे. साथे
साथे बार वैराग्यभावना, अने नवतत्त्वनी चर्चा पण सरस छे. कमठने क्रोधस्वभावथी
केटलुं दुःख वेठवुं पड्युं ते वात बाळकने पण समजाय तेवी छे. अने भगवान
पारसनाथना पंचकल्याणकनुं वर्णन वांचता तो जाणे नजर सामे ज पंचकल्याणक
उजवाई रह्या होय एवुं लागे छे. वळी आडीअवळी लांबी वात वगर कथानायकने ज
फकत लक्षमां राखीने सरळभाषामां लखायेल होवाथी बाळको पण होशथी वांची शके
तेवुं छे, अवारनवार आवता चित्रोने लीधे वांचवानो रस अने ईन्तेजारी रह्या करे छे.
–आ रीते पुस्तक खरेखर सुंदर बन्युं छे.
जैनबालपोथी भाग–२ वीर पत्रद्वारा प्राप्त हुई–जिसको पढकर संघके प्रत्येक सदस्य व
पदाधिकारीने बहुत ही प्रशंसा की, और विद्यालयके बच्चोंको शिक्षाहेतु यह पुस्तक दिया,
–जिसको, पढकर अध्यापक महोदयने भी पसन्द किया! हमारी यह शिक्षासंस्था
भगवान चंद्रप्रभुसे प्रार्थना करती है कि आपकी ईस धार्मिकप्रवृत्तिमें चार चांद लगें,
और ईसप्रकारकी स्वाध्यायहेतु ग्रंथ प्रकाशित होते रहे! ’