
होय, मुनिने योग्य आचरण पण न होय–एवाने मुनि मानी लेतां तो ऊल्टुं साचा
मुनिभगवंतोनो अनादर थाय छे. मुनिने परम आदरथी मानीए छीए, –पण
मुनि होवा जोईएने? जेने अंतरमां आत्मानुं भान होय, अने अंदर घणी
लीनतारूप चारित्रदशामां आत्माना परम आनंदना घूंटडा पीता होय, तद्न
दिगंबर दशा होय–एवा मुनि ते तो भगवान छे. अत्यारे एवा मुनिना दर्शन
अहीं दुर्लभ छे, –पण तेथी कांई गमे तेवा विपरीत स्वरूपवाळाने मुनि न मानी
लेवाय. –आ तो वीतरागनो मार्ग छे, तेमां गोटा न चाले. पोताना हितने माटे
साचो निर्णय करवानी आ वात छे.
बतावे छे जेणे रागादि परभावोमां एकता मानी, ने तेनाथी भिन्न ज्ञानचेतनाने
न जाणी, तेने सम्यग्दर्शन पण नथी, तो मुनिदशा क््यांथी होय? भाई! एकवार तुं
परभावोथी जुदी तारी ज्ञानचेतनावंत वस्तुने अनुभवमां ले तो तने सम्यग्दर्शन
थशे ने तारा जन्म–मरणनो छेडो आवशे. आवी ज्ञानचेतनानो अनुभव
गृहस्थनेय चोथा गुणस्थाने थाय छे. आठ वर्षनी दीकरी पण आवो अनुभव करी
शके छे. गमे तेटला शुभभाव करे पण आवा अनुभवरूप ज्ञानचेतना वगर कदी
धर्म थाय नहीं.
ज्ञानचेतनाथी छूटो ज जाणे छे, एटले ज्ञानचेतनामांथी तो बधो राग तेणे छोडी ज
दीधो छे. ज्ञानचेतना साथे रागना एक कणियाने पण धर्मीजीव भेळवता नथी.
ज्ञान–चारित्ररूप छे, ने तेने ज परमार्थधर्म कह्यो छे, ते ज मोक्षनो हेतु छे. ए
सिवाय जे व्यवहारना शुभराग छे अने लोको जेने धर्म माने छे ते कांई परमार्थ
धर्म नथी,