: १४ : आत्मधर्म : फागण : २४९७
–पण कोण बोले? भगवान तो पोताना ध्यानमां लीन छे; ए तो नथी
अग्निनी ज्वाळानी पण भगवानने कांई असर न थई तेथी संवरदेव वधारे
बहारमां संवरदेव पहाडना पहाड उखेडीने फेंकतो हतो, पण ए पथरा तो
पथ्थरना वरसादथी पण प्रभु न डग्या, त्यारे संवरदेवे धोधमार पाणी
वरसाववा मांड्युं. हमणां जाणे आखी पृथ्वी डूबी जशे–एम दरिया जेवुं पाणी उभरावा
लाग्युं. वनमां चारेकोर हाहाकार थई गयो; पशुओ भयभीत थईने प्रभुना शरणे बेसी
गया. संवरदेव क्रोधथी पारसमुनिराज उपर घोर उपसर्ग करी रह्यो छे.
–पण प्रभु उपरना उपसर्गने कुदरत सहन करी न शकी; धरणेन्द्रनुं आसन कंपी उठयुं:
अरे! आ ईन्द्रासन केम धू्रजे छे! ’ –अवधिज्ञानथी तेने खबर पडी के अमारा पर
परम उपकार करनारा पारसमुनिराज उपर अत्यारे संवरदेव घोर उपसर्ग करी रह्यो
छे....तरत ज धरणेन्द्र अने पद्मावती त्यां आव्या ने उपसर्ग दूर करवा तत्पर थया.