ः फागण : २४९७ आत्मधर्म : १५ :
एक तरफ संवरदेव द्वेषथी उपसर्ग करी रह्यो छे; बीजी तरफ धरणेन्द्रदेव तथा
पद्मावतीदेवी भक्तिरागथी सेवा करी रह्या छे, प्रभु तो राग–द्वेष बन्नेथी पार पोतानी
चैतन्यसाधनामां ज तत्पर छे. एमने नथी संवर उपर द्वेष, के नथी धरणेन्द्र प्रत्ये राग;
बहारमां शुं बनी रह्युं छे तेनुं तेमने लक्ष नथी. बहारमां पाणीनो धोध वरसे छे तो
प्रभुना अंतरमां चैतन्यना आनंदनो सागर ऊछळी रह्यो छे.
वहाला वांचक! अत्यारे भगवान उपर आवो उपसर्ग देखीने तने कदाच ए
कमठना जीव उपर (संवरदेव उपर) क्रोध आवी जतो हशे! –पण सबुर! तुं एना उपर
क्रोध न करीश. ए जीव पण हमणां ज सम्यग्दर्शन पामीने धर्मात्मा बनवानो छे. जे
पारसनाथ उपर ते उपसर्ग करी रह्यो छे ते ज पारसप्रभुना शरणमां आत्मानो
अनुभव करीने ते सम्यग्दर्शन पामशे; ने त्यारे तने तेना प्रत्ये बहुमान जागशे के–
वाह! धन्य ते आत्मा, के जेणे क्षणमां परिणामनो पलटो करीने आत्मानो अनुभव
कर्यो. परिणाम क्षणमां पलटावी शकाय छे. क्रोध कांई आत्मानो स्वभाव नथी के ते
कायम टकी रहे! ते क्रोधथी जुदो ज्ञानस्वरूप आत्मा छे. उपसर्ग वखते पारसनाथे पण
कांई कमठना जीव उपर क्रोध नहोतो कर्यो;– जो क्रोध कर्यो होत तो तेओ केवळज्ञान न
पामत. आ प्रसंगद्वारा मौनपणे पण पारसनाथ प्रभु एवो उपदेश आपे छे के हे जीवो!
उपसर्ग करनारा प्रत्ये पण तमे क्रोध न करशो.....तमे शांतभावे तमारी आत्मसाधनामां
अडोल रहेजो.
बहु उपसर्गकर्ता प्रत्ये पण क्रोध नहीं;
वंदे चक्री तथापि न मळे मान जो;
देह जाय पण माया थाय न रोममां,
लोभ नहीं छो प्रबळ सिद्धि निदान जो.
–आवी अपूर्व मुनिदशामां प्रभु वर्ती रह्या छे. धन्य एमनी वीतरागता! धन्य
एमनी आत्मसाधना!
आ बाजु संवरदेव तो, जाणे के भगवानने पाणीमां डुबाडी दउं–एम धोधमार
वरसाद वरसावी रह्यो छे; धरणेन्द्र अने पद्मावती अत्यंतभक्तिपूर्वक पाणीमां कमळनी
रचना करीने प्रभुने पाणीथी अद्धर राखे छे, ने उपर मोटी फेणवडे छत्र रचे छे, अंदर
परभावथी अलिप्त रहेनारा भगवान पाणीथी पण अलिप्त ज रह्या.
अहा! भगवान तो आत्मसाधनाथी न डग्या ते न ज डग्या. सात–सात दिवस
सुधी उपसर्ग करीने अंते संवरदेव थाक््यो.....छेवटना उपाय तरीके तेणे भयंकर गर्जना
साथे वीजळीनो कडाको कर्यो. बहारमां वीजळीनो झबकारो थयो.....बराबर ए ज वखते
प्रभुना अंतरमां केवळज्ञाननी दिव्य वीजळी त्रणलोकने प्रकाशती झळकी ऊठी! एकाएक
बधाय उपसर्ग अलोप थई गया ने सर्वत्र आनंद–आनंद छवाई गयो.