: २८ : आत्मधर्म : फागण : २४९७
स्वप्ननुं दुःख जागृत
थतां मटी गयुं
(स्वप्नमां मरेलो भास्यो ते जागता जीवतो ज छे.)
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एक माणस निद्रामां सूतो हतो; तेने स्वप्न आव्युं के ‘हुं मरी गयो छुं. ’ आ
रीते पोतानुं मरण देखीने ते जीव घणो दुःखी ने भयभीत थयो.
कोई सज्जने तेने जगाडयो; जागतावेंत तेणे जोयुं के अरे, हुं तो जीवतो ज आ
रह्यो. हुं कांई मरी नथी गयो. स्वप्नमां मने मरेलो मान्यो तेथी हुं बहु दुःखी थयो, पण
खरेखर हुं जीवतो छुं. आम पोताने जीवतो जाणीने ते आनंदित थयो ने मृत्यु संबंधी
तेनुं दुःख मटी गयुं. अरे, जो ते मरी गयो होत तो ‘हुं मरी गयो’ एम जाण्युं कोणे?
जाणनारो तो जीवतो ज छे!
तेम मोहनिद्रामां सूतेलो जीव, देहादिना संयोग–वियोगथी स्वप्ननी माफक एम
माने छे के हुं मर्यो, हुं जन्म्यो; हुं मनुष्य थई गयो, हुं तिर्यंच थई गयो. ते मान्यताने
लीधे ते बहु दुःखी थाय छे पण ज्ञानीए जड–चेतननी भिन्नता बतावीने तेने जगाडयो,
जागतां ज तेने भान थयुं के अरे, हुं तो अविनाशी चेतन छुं ने आ शरीर जड छे ते
कांई हुं नथी; शरीरना संयोग–वियोगे मारुं जन्म–मरण नथी. आवुं भान थतां ज तेनुं
दुःख दूर थयुं ने ते आनंदित थयो के वाह! जन्म–मरण मारामां नथी, हुं तो सदा जीवंत
चैतन्यमय छुं. हुं मनुष्य के हुं तिर्यंच थई गयो नथी, हुं तो शरीरथी जुदो चैतन्य ज
रह्यो छुं. जो हुं शरीरथी जुदो न होउं तो शरीर छूटतां हुं केम जीवी शकुं? हुं तो जाणनार
स्वरूपे सदाय जीवंत छुं.
जेम स्वप्नमां पोताने मरेलो भास्यो पण जागतां तो जीवतो ज छे, तेम
अज्ञानदशामां पोताने देहरूप मान्यो ते ज्ञानदशामां जुदो ज अनुभवे छे.
स्वप्नमां मृत्युनी माफक, स्वप्नमां कोई दरिद्री जीव पोताने सुखी के राजा माने,
पण ज्यां जागे त्यां तो खबर पडी के ए सुख साचुं न हतुं. तेम मोहनिद्रामां सूतेलो
जीव बाह्य संयोगोमां–पुण्यमां–रागमां जे सुख माने छे ते तो स्वप्नना सुख जेवुं छे.
ज्यां भेदज्ञान करीने जाग्यो त्यां भान थयुं के अरे, बाह्यमां–रागमां क््यांय मारुं सुख
नथी; तेमां सुख मान्युं ते तो भ्रम हतो, साचुं सुख मारा आत्मामां छे.