ः फागण : २४९७ आत्मधर्म : ३ :
वडे. स्वानुभूति थतां भान थयुं के अहो! ज्ञान अने आनंदस्वरूप वस्तु हुं ज छुं,
अने जगतमां सौथी श्रेष्ठ सारभूत हुं ज छुं. –आवी अनुभूतिथी आत्मा शोभी
ऊठ्यो.
स्वानुभूति ते साधकपर्याय छे, अने तेना फळमां सकळ पदार्थोने
जाणवारूप केवळज्ञान प्रगटे छे, ते पूर्ण शुद्धपर्याय छे. आमां द्रव्य–गुण–पर्याय
त्रणे आवी गया.
* भावाय कहेतां द्रव्य आव्युं.
* चित्स्वभाव कहेतां गुण आव्यो.
* स्वानुभूति कहेतां साधक दशा आवी; एटले संवर–निर्जरा आव्या. (अने
आस्रव–बंधनो तेमां अभाव आव्यो.)
* सर्व भावांतरच्छिदे कहेतां सर्वज्ञतारूप मोक्षपर्याय आवी.
* आवा विशेषणो सहित शोभतो जे सारभूत आत्मा, समयसार तेने
नमस्कार करवारूप मंगळ कर्युं. मंगळश्लोकमां अलौकिक गंभीर भावो भर्या छे.
प्रथम श्लोकमां पं. बनारसीदासजीए चिदानंद भगवाननी स्तुतिरूप मंगळ कर्युं.
हवे शुद्धात्माना प्रतिबिंबस्वरूप जे सिद्धभगवान तेमनी स्तुति तथा नमस्काररूप
मंगळ बीजा श्लोकमां कहे छे:–
जो अपनी दुति आप विराजत,
है परधान पदारथ नामी।
चेतन अंक सदा निकलंक,
महा सुख सागरकौ विसरामी।।
जीव अजीव जिते जगमैं,
तिनको गुन ज्ञायक अंतरजामी।
सो सिवरूप बस सिव थानक,
ताहि विलोकि नमैं सिवगामी।।२।।
(अनुसंधान पृष्ठ २९ पर)