Atmadharma magazine - Ank 329
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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: ४ : आत्मधर्म : फागण : २४९७
नाटक सुनत हिये फाटक खुलत है
समयसार–नाटक द्वारा
शुद्धात्मानुं श्रवण करतां
हैयानां फाटक खुली जाय छे.
(समयसार नाटकनां प्रवचनोमांथी प्रसादी (२) गतांकथी चालु)
* * * * *
* अरिहंत–सिद्ध अने साधुनी स्तुति पछी सम्यग्द्रष्टिनी प्रशंसा चाले छे.
* अहो! जगतमां समकिती जीवो ज सदाय सुखिया छे. भगवानना दास अने
जगतथी उदास–एवा समकिती जीव स्वअर्थमां साचा छे एटले के आत्मपदार्थनुं
साचुं ज्ञान करीने तेने ते साधी रह्या छे; अने परमार्थरूप जे मोक्ष तेमां तेमनुं
चित्त खरेखर लागेलुं छे; आत्मानुं साचुं ज्ञान छे ने मोक्षनो साचो प्रेम छे.
मोक्षनी साधनामां ज एमनुं चित्त लागेलुं छे.
* सम्यग्द्रष्टि धर्मात्मा गृहस्थदशामां होय ने बीजी क्रियाओ करता देखाय, पण ए
तो ‘जेम धावमाता बाळकने धवडावे तेम’ अंतरथी ते न्यारा छे. एनी रुचिनो
प्रेम संसारमां क््यांय नथी, एक मोक्षरूप परमार्थने ज साधवानी लगनी छे.
अंतरमां एनी द्रष्टि गृहस्थपणाथी पार पोताना आत्माने देखे छे.
असंयतदशामां होवा छतां आवा सम्यग्द्रष्टि जीवो मोक्षना साधक होवाथी
प्रशंसनीय छे. चारे गतिना जीवोने आवुं सम्यग्दर्शन थई शके छे.
* हवे, सम्यग्द्रष्टिना अंतरमां भेदज्ञान केवुं प्रगट्युं छे? –तो कहे छे के गणधर
जेवुं. अहो! जे सम्यग्द्रष्टि छे तेना हृदयमां, तेना आत्मामां गणधर भगवान
जेवो विवेक प्रगट्यो छे, विवेक एटले स्व–परनुं भेदज्ञान, ते तो नाना
सम्यग्द्रष्टि–देडकाने अने मोटा गणधरदेवने बंनेने सरखुं छे; बंने पोताना
आत्माने विकल्पथी भिन्न शुद्धस्वरूप अनुभवे