Atmadharma magazine - Ank 329
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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फागण : २४९७ आत्मधर्म : ५ :
छे. स्वने स्व, अने परने पर–एम स्व–परनी भिन्नता जाणवामां बधा
सम्यग्द्रष्टि सरखा छे. कोई सम्यग्द्रष्टिना अंतरमां पोताना शुद्धात्मा सिवाय
परभावनो एक अंश पण पोतानो भासतो नथी.
* धर्मीने अनुभवमां आनंदना झरणां फूटयां छे; सम्यग्दर्शन थाय ने भेदज्ञान
थाय त्यां आत्माना आनंदनो अनुभव थाय छे. आत्माना स्वभावनुं जे
साचुं सुख, तेने ज ते सुख माने छे; आत्माना स्वभाव सिवाय बीजे
क््यांय कोई विषयमां तेओ सुख मानता नथी. अहा, अतीन्द्रिय स्वाधीन
सुखनो स्वाद जेणे चाख्यो ते ईन्द्रिय–विषयोमां स्वप्नेय सुख माने नहीं. ते
पोताना आत्माना अडोल महिमाने जाणे छे. अहा, सम्यग्दर्शननो अपार
महिमा छे.
* ते सम्यग्द्रष्टि धर्मात्मा पोताना सम्यग्दर्शनादि गुणोने प्रगट करीने, ते
सम्यग्दर्शनादि स्वभावने पोतामां ज धारण करे छे. रागादि परभावोने
ते पोतामां धारण करता नथी; स्वभावना आश्रये प्रगटेला सम्यग्दर्शनादि
शुद्ध भावोने ज ते आत्मामां धारण करे छे. श्रीमद् राजचंद्रजी पण कहे छे
के–
‘स्वद्रव्यना धारक त्वराथी थाओ, परद्रव्यनुं धारकपणुं त्वराथी छोडो. ’
एटले धर्मी निश्चयने ज धारण करे छे ने रागादि व्यवहारने धारण
करता नथी. आनुं नाम धर्मनो विवेक छे. आवा विवेक वगर धर्म होतो
नथी.
* निर्विकल्प भेदज्ञानमां आत्मा अने राग जुदा पडी जाय छे. अंतरमां शुद्धात्माने
अनुभवमां लीधो त्यां जीव अने अजीवनुं अत्यंत पृथक्करण थई गयुं. एककोर
शुद्धजीव ते स्वपणे अनुभवमां आव्यो, ने एना सिवायनुं बीजुं बधुं अजीवमां
रही गयुं. आवी अंतरनी क्रियावडे धर्मी जीवने मोक्षनां फाटक खूली जाय छे,
तेना वडे ते मोक्षने साधे छे.
* ते धर्मीजीव आत्मशक्तिओने साधे छे ने ज्ञानना उदयने आराधे छे; ज्ञाननो
उदय एटले पूर्ण केवळज्ञाननो प्रकाश, तेने धर्मी जीव आराधे