Atmadharma magazine - Ank 330
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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: ८ : आत्मधर्म : चैत्र : २४९७
* पुद्गलादि परद्रव्यमां अहंबुध्धि छोडी, राग–द्वेष दूर करी आत्मस्वरूपमां लीन
थवुं जोईए.
* भगवान आत्मा पोते अतीन्द्रिय आनंदनो दरियो छे; तेमांथी राग–द्वेष दूर
करीने आत्मस्वरूपमां लीन थतां आनंद थाय छे. पोतानो आनंद पोतामां छे;
शरीरमांथी के बहारमांथी आनंद आवतो नथी.
* अज्ञानी जीव कहे छे के शरीर अने आत्मा एक ज छे, हुं ज तेनो कर्ता छुं.
एम जडनो कर्ता चेतनने माने छे.
* हुं ज्ञानस्वरूप छुं, एम अज्ञानी जाणतो नथी, ने शुभ–अशुभ राग मारुं कार्य
छे, तेनो हुं कर्ता छुं एम ते माने छे. आवी अज्ञानबुद्धिथी ज कर्म बंधाय छे.
* ज्यारे स्वरूपनुं भेदज्ञान करे त्यारे जीवने सम्यग्ज्ञान थाय छे; त्यारे ते जाणे
छे के हुं ज्ञान छुं, ने राग मारुं स्वरूप नथी; एटले ते रागनो कर्ता थतो नथी. तेने कर्म
बंधातुं नथी. आनुं नाम धर्म छे.
* जडकर्म अने ज्ञान जुदा छे.
कर्मे आत्माना ज्ञानने ढांकयुं नथी. जीव साचो पुरुषार्थ करे त्यां साचुं ज्ञान
प्रगटे; अने साचुं ज्ञान प्रगटे त्यां कर्मो टळी जाय. ज्ञान अने कर्म जुदा छे–एम धर्मी
जाणे छे.
* राग–द्वेष–हर्ष–शोकनुं वेदन तो अज्ञानीनुं वेदन छे; ज्ञानी तो पोताना ज्ञान
स्वरूपने तथा आनंदने ज वेदे छे, जडने तो कोई वेदतुं नथी. आनंदनुं वेदन ते ज
ज्ञानीनुं वेदन छे.
* दरेक जीवे आवुं भेदज्ञान करीने साधकदशा प्राप्त करवी जोईए.
* शरीर जड छे; दुःख अने राग–द्वेष पण जीवनुं खरूं स्वरूप नथी; जीवो तो
जाणनार स्वरूप छे. जाणवामां दुःख न होय. जाणनारस्वरूपमां तो आनंद छे.
* शरीरमां वींछी करडयो, तेनुं जीवने ज्ञान थयुं, ते कांई दुःखनुं कारण नथी;
पण शरीर मारुं अने मने वींछी करडयो एवी मिथ्याबुद्धि ज महा दुःखनुं कारण थाय
छे. वींछी करडयो अने दुःख थयुं–ते बंनेथी धर्मी पोताना ज्ञानस्वरूपने भिन्न जाणे छे.
आवो जे जाणवारूप भाव छे ते ज साचो आत्मा छे, दुःख ते खरेखर आत्मा नथी.
* प्रभु! आवा आत्मानो तुं अनुभव कर! आत्मामां अतीन्द्रिय आनंदनी
सुगंध भरी छे.....शरीर मारुं, हुं तेनो कर्ता–एम अज्ञाननी अने रागनी गंध अनादिथी
बेसाडी छे, ते काढी नांख,