Atmadharma magazine - Ank 330
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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: १४ : आत्मधर्म : चैत्र : २४९७
अरे, क्यां उत्तम धर्मसंस्कारवाळा माता–पितानुं घर! ने क््यां आ वेश्यानुं घर!!
अनंतमतीना अंतरमां वेदनानो पार नथी; पण पोताना शीलव्रतमां ते अडग छे.
संसारना वैभवो देखीने क््यांय तेनुं मन ललचातुं नथी.
आवी सुंदरी पोताने प्राप्त थवाथी कामसेना वेश्या घणी खुशी थई, ने पोताने
घणी कमाणी थशे एम समजीने अनंतमतीने भ्रष्ट करवानो प्रयत्न करवा लागी; तेणे
अनेक प्रकारे कामोत्तेजक वातो करी, घणी लालच आपी, घणो त्रास आप्यो, पण
अनंतमती तो पोताना शीलधर्मथी रंचमात्र न डगी. कामसेनाने तो एवी आशा हती
के आ युवान स्त्रीनो वेपार करीने हुं घणुं धन कमाईश, पण एनी आशा उपर पाणी
फरी वळ्‌युं. ए बिचारी विषयलोलुप बाईने क््यांथी खबर होय के आ युवान बाईए
तो धर्मनी ज खातर पोतानुं जीवन अर्पी दीधुं छे, ने संसारना कोई विषयभोगोनी
तेने जराय आकांक्षा नथी; संसारना भोगो प्रत्ये तेनुं चित्त एकदम निष्कांक्ष छे. शीलनी
रक्षा करतां गमे तेवुं दुःख आवी पडे तेनो भय नथी. अहा! जेनुं चित्त निष्कांक्ष छे ते
भयवडे पण संसारना सुखने केम ईच्छे? जेणे पोताना आत्मामां ज परमसुखनां
निधान देख्यां छे ते धर्मात्मा, धर्मना फळमां संसारना देवादिक वैभवना सुखने स्वप्नेय
वांछता नथी–एवा निःकांक्ष छे; तेम अनंतमतीए पण शीलगुणनी द्रढताने लीधे
संसारना सर्वे वैभवनी आकांक्षा छोडी दीधी; कोईपण वैभवथी ललचाया वगर ते
शीलमां अडग रही. अहा! स्वभावना सुख पासे संसारना सुखने कोण वांछे?
खरेखर, संसारना सुखनी वांछाथी छूटीने निःकांक्ष थयेली अनंतमतीनी आ दशा एम
सूचवे छे के तेना परिणामनो प्रवाह हवे स्वभावसुख तरफ झूकी रह्यो छे. आवा
धर्मसन्मुख जीवो संसारनां दुःखथी कदी डरता नथी ने पोतानो धर्म कदी छोडता नथी.
संसारना सुखने वांछनारो जीव पोताना धर्ममां अडग रही शकतो नथी. दुःखथी डरीने
ते धर्म पण छोडी दे छे.
ज्यारे कामसेनाए जाण्युं के अनंतमती कोईपण रीते ताबे थवानी नथी, त्यारे
तेणे घणुं धन लईने सिंहाराज नामना राजाने ते सोंपी दीधी.
बिचारी अनंतमती! जाणे सिंहना जडबामां जई पडी! वळी पाछी तेना पर
नवी आफत आवी दुष्ट सिंहराजा पण तेना पर मोहित थयो पण अनंतमतीए तेनो
तिरस्कार कर्यो; विषयांध बनेलो ते पापी अभिमानपूर्वक सती पर बलात्कार करवा
तैयार थयो–पण क्षणमां एनुं अभिमान ऊतरी गयुं. –सतीना