Atmadharma magazine - Ank 330
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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: १६ : आत्मधर्म : चैत्र : २४९७
लग्ननुं नाम सांभळतां ज अनंतमती चमकी, अने बोली ऊठी: पिताजी! तमे
आ शुं कहो छो? में तो ब्रह्मचर्यव्रत लीधुं छे, ने आप पण ते जाणो छो. आपे ज मने
ते व्रत अपाव्युं हतुं.
पिताजी कहे: ‘बेटी, ए तो मारी नानपणनी गम्मत हती; तेम छतां ते
गम्मतनी प्रतिज्ञाने पण तुं सत्य मानती हो तोपण ते वखते आठ ज दिवस पूरती
प्रतिज्ञानी वात हती; माटे हवे तुं लग्न कर. ’
अनंतमतीए द्रढताथी कह्युं: पिताजी! आप भले आठ दिवसनुं समज्या हो पण
में तो मारा मनथी आजीवन ब्रह्यचर्य प्रतिज्ञा धारण करी छे. मारी प्रतिज्ञा हुं प्राणान्ते
पण तोडीश नहीं; माटे आप लग्ननुं नाम न लेशो. ’
छेवटे पिताजीए कह्युं; ‘भले बेटी, जेवी तारी खुशी. पण हवे तुं अमारी साथे
घेर चाल, अने त्यां धर्मध्यान करजे. ’
त्यारे अनंतमती कहे छे– ‘पिताजी! आ संसारनी लीला में जोई लीधी
संसारमां भोग–लालसा सिवाय बीजुं शुं छे? एनाथी हवे बस थाओ. पिताजी! आ
संसारसंबंधी कोई भोगोनी मने आकांक्षा नथी. हुं तो हवे दीक्षा लईने आर्जिका थईश.
ने आ धर्मात्मा–आर्जिकाओनी साथे रहीने मारा आत्मिक सुखने साधीश.’
पिताए तेने रोकवा खूब प्रयत्न कर्यो, पण जेना रोमरोममां वैराग्य छवाई
गयो होय ते आवा असार संसारमां केम रहे? संसारसुखोने स्वप्ने पण न ईच्छनारी
एवी ते अनंतमती निःकांक्षभावनाना द्रढ संस्कारबळे मोहबंधनने तोडीने
वीतरागधर्मने साधवा तत्पर बनी हती; तेणे पद्मश्री–अर्जिका समीप दीक्षा अंगीकार
करी लीधी. अने धर्मध्यानपूर्वक समाधिमरण करी, स्त्रीपर्यायने छेदीने बारमा
देवलोकमां उपजी.
रमतां रमतां लीधेला शीलव्रतनुं पण जेणे द्रढपणे पालन कर्युं अने स्वप्नेय
संसारसुखने न ईच्छयुं. तेम ज सम्यक्त्वथी के शीलना प्रभावथी आवी ऋद्धि मने
मळो–एवी आकांक्षा पण जेणे न करी, ते अनंतमती देवलोकमां गई; अहा! देवलोकना
आश्चर्यकारी वैभवनी शी वात! पण परम निःकांक्षताने लीधे तेनाथी पण उदास रहीने
ते अनंतमती पोताना आत्महितने साधी रही छे. धन्य छे एनी निःकांक्षताने
(–आ कथा, संसारसुखनी वांछा छोडीने आत्मिकसुखने ज
साधवामां तत्पर थवानुं आपणने शीखवे छे.)