: चैत्र : २४९७ आत्मधर्म : १९ :
आनंदनी जन्मभूमि
(फागण सुद ११ ना प्रवचनमांथी)
मोक्षनो मार्ग शुद्धरत्नत्रय छे, अने ते स्वद्रव्यने आश्रित छे. स्वद्रव्य ते
आनंदनुं जन्मधाम छे....तेमां द्रष्टि करतां ज शांतिरूप आनंदपर्यायनो जन्म थाय
छे.
जेने स्वद्रव्याश्रित शुद्धसम्यग्दर्शन थयुं छे तेने निमित्तरूप एवा
वीतरागसर्वज्ञदेवनी परमभक्ति सहेजे होय छे.
रे जीव! आ भवभयने भेदनारा भगवान प्रत्ये शुं तने भक्ति नथी? जो
नथी, तो तुं भवसमुद्रनी वचमां मगरमच्छना मोढामां पड्यो छो. –
वीतरागसर्वज्ञदेवनी परमभक्ति अने तेमणे कहेला अंतर्मुख वीतरागमार्गनी
उपासना ते ज भवसमुद्रने तरवानुं कारण छे. माटे हे भव्य! भगवाने कहेला
मार्गने ओळखीने भक्तिथी तेनुं सेवन कर...जेथी तारा भवनो नाश थशे ने तने
मोक्षसुख प्राप्त थशे.
अंतर्मुख थईने जेणे पोताना अतीन्द्रियआनंदने अनुभव्यो छे एवा धर्मी जाणे
छे के अहो! मारो जे अतीन्द्रिय आनंद, तेनुं जन्मधाम मारो आत्मा छे. मारुं सहज
आत्मतत्त्व पोते ज आनंदनी उत्पत्तिनुं स्थान छे.
अंतरमां आवा आनंदधाम आत्मानी श्रद्धावडे सम्यग्दर्शन थयुं छे. धर्मीए
अंतरमां पोतानो जे आवो आनंद देख्यो ते सिवाय बीजा कोईनी तेने अभिलाषा
नथी. निज परमात्मानुं जे परम सुख तेनो ज ते अभिलाषी छे; तेनो स्वाद चाख्यो छे,
एटले अंतरमां ‘आनंदपुत्र’नो अवतार थयो छे. जेम दरियो पोते पोतामां डोले तेम
धर्मी पोते पोताना आनंदसमुद्रमां डोले छे एटले के आनंदने अनुभवे छे. सम्यक्त्वनी
साथे ज आवो आनंद होय छे.
आ रीते ‘सम्यक्त्व’ अने ‘आनंद’ बन्ने सदाय साथे ज रहेनारा छे.