पोतामां अनुभवी लीधुं छे, पोतानुं सर्वस्व पोतामां देखी लीधुं छे. –‘शुद्ध–बुद्ध–
चैतन्यघन स्वयं ज्योति सुखधाम’ आ रीते स्वाश्रित सुंदर मोक्षमार्गना सम्यग्ज्ञान
अने सम्यग्दर्शननी वात करी; हवे सम्यक्चारित्रनी वात करे छे.
कारणपरमात्मा छे तेना श्रद्धा–ज्ञानपूर्वक तेमां अविचळ स्थिति ते चारित्र छे; आमां
राग नथी; आवुं चारित्र मोक्षने माटे कर्तव्य छे. स्वरूपमां लीनतारूप वीतरागचारित्रने
नियम कह्यो पण शुभराग–पंचमहाव्रतादि विकल्पोने नियम न कह्यो; एटले मोक्षने माटे
वीतरागचारित्रने ज कारण कह्युं. शुभने कारण न कह्युं. रत्नत्रयरूप जे आवो सुंदर
मार्ग छे ते परम निरपेक्ष छे. अने रागना अभावथी ते शुद्ध छे; आवा शुद्धरत्नत्रयने
नियम–सार कहेवाय छे. अने ते नियमथी कर्तव्य छे.
रत्नत्रय साथे ‘सार’ विशेषण लगाडीने ते विपरीत भावोनो परिहार कर्यो छे,
विपरीत भाव वगरनां एटले के रागना वगरनां एवा जे शुद्ध–सारभूत–निर्विकल्प
वीतरागी रत्नत्रय ते ज मोक्षनुं साक्षात् कारण होवाथी मुमुक्षुने कर्तव्य छे, तेनाथी ज
अतीन्द्रिय मोक्षसुख प्राप्त थाय छे.
अंतर्मुख करीने पोताना परम तत्त्वने जाण्युं. परम–आत्मसुखनो ज अभिलाषी थईने
अंतरमां आनंदना धाम एवा पोताना शुद्ध जीवनी परम श्रद्धा करी, अने ते ज
कारणपरमात्मामां स्थिरतां करी, –आवा शुद्ध रत्नत्रय तेमां क््यांय राग न आव्यो.
परद्रव्यनुं अवलंबन न आव्युं, एकला स्वद्रव्यना अवलंबने ज आवा शुद्ध रत्नत्रयरूप
मोक्षमार्ग छे, अने ते ज भवना नाश माटे भव्य जीवोनुं कर्तव्य छे, तेथी मुनिराज कहे
छे के–