Atmadharma magazine - Ank 330
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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: चैत्र : २४९७ आत्मधर्म : २७ :
वात लीधी छे. सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र त्रणे आनंदरूप छे. सम्यग्द्रष्टिए पोतानुं सुख
पोतामां अनुभवी लीधुं छे, पोतानुं सर्वस्व पोतामां देखी लीधुं छे. –‘शुद्ध–बुद्ध–
चैतन्यघन स्वयं ज्योति सुखधाम’ आ रीते स्वाश्रित सुंदर मोक्षमार्गना सम्यग्ज्ञान
अने सम्यग्दर्शननी वात करी; हवे सम्यक्चारित्रनी वात करे छे.
मोक्षना कारणरूप सुंदर चारित्र छे–ते केवुं छे?
‘सुंदर’ एटले वीतराग; सम्यग्दर्शन–सम्यग्ज्ञान–सम्यक्चारित्र ए त्रणे
वीतराग छे, अने वीतराग छे माटे सुंदर छे. निश्चयज्ञानदर्शन स्वरूप जे
कारणपरमात्मा छे तेना श्रद्धा–ज्ञानपूर्वक तेमां अविचळ स्थिति ते चारित्र छे; आमां
राग नथी; आवुं चारित्र मोक्षने माटे कर्तव्य छे. स्वरूपमां लीनतारूप वीतरागचारित्रने
नियम कह्यो पण शुभराग–पंचमहाव्रतादि विकल्पोने नियम न कह्यो; एटले मोक्षने माटे
वीतरागचारित्रने ज कारण कह्युं. शुभने कारण न कह्युं. रत्नत्रयरूप जे आवो सुंदर
मार्ग छे ते परम निरपेक्ष छे. अने रागना अभावथी ते शुद्ध छे; आवा शुद्धरत्नत्रयने
नियम–सार कहेवाय छे. अने ते नियमथी कर्तव्य छे.
राग वगरना शुद्धरत्नत्रय ते ज सुंदर छे, सार छे, अने ते ज उत्तम छे. रागरूप
व्यवहाररत्नत्रय ते कांई सार नथी. सुंदर नथी –श्रेष्ठ नथी, कर्तव्य नथी; एटले
रत्नत्रय साथे ‘सार’ विशेषण लगाडीने ते विपरीत भावोनो परिहार कर्यो छे,
विपरीत भाव वगरनां एटले के रागना वगरनां एवा जे शुद्ध–सारभूत–निर्विकल्प
वीतरागी रत्नत्रय ते ज मोक्षनुं साक्षात् कारण होवाथी मुमुक्षुने कर्तव्य छे, तेनाथी ज
अतीन्द्रिय मोक्षसुख प्राप्त थाय छे.
अहो, मोक्षनुं कारण तो शुद्ध रत्नत्रय छे. अने ते रत्नत्रय अंतर्मुख आत्माना
आश्रये ज थाय छे. जेमां कोई बीजानुं अवलंबन नथी. एवा उपयोगने अत्यंत
अंतर्मुख करीने पोताना परम तत्त्वने जाण्युं. परम–आत्मसुखनो ज अभिलाषी थईने
अंतरमां आनंदना धाम एवा पोताना शुद्ध जीवनी परम श्रद्धा करी, अने ते ज
कारणपरमात्मामां स्थिरतां करी, –आवा शुद्ध रत्नत्रय तेमां क््यांय राग न आव्यो.
परद्रव्यनुं अवलंबन न आव्युं, एकला स्वद्रव्यना अवलंबने ज आवा शुद्ध रत्नत्रयरूप
मोक्षमार्ग छे, अने ते ज भवना नाश माटे भव्य जीवोनुं कर्तव्य छे, तेथी मुनिराज कहे
छे के–