Atmadharma magazine - Ank 330
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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: २८ : आत्मधर्म : चैत्र : २४९७
आ रीते विपरीतता वगरना निर्विकल्प सौथी श्रेष्ठ अने सुंदर एवा शुद्ध
रत्नत्रयने प्रगट करीने मोक्षना परम अतीन्द्रिय सुखने अनुभवुं छुं...तमे पण एवो
अनुभव करो.
वाह! केवो सुंदर मार्ग! अने केवुं उत्तम तेनुं फळ!
आवा शुद्ध मार्गनुं अने तेना उत्तम फळनुं स्वरूप वीतरागी संतोए भव्य
जीवोना परमानंदने माटे प्रसिद्ध कर्युं छे.
नमस्कार हो ते संतोने अने ते सुंदर मार्गने!
* * * * *
भ...ज...न...
प्राचीन कवि ‘न्यामत’ जी एक भजनमां कहे छे के–
विना समकितके चेतन जनम विरथा गंवाता है!
तुझे समजाएं क््या मूरख! नहीं तुं दिलमें लाता है!
है दर्शन–ज्ञान गुण तेरा, ईसे भूला है कयों मूरख!
अरे. अब तो समझ ले तुं, चला संसार जाता है!
तेरे में और परमातम मैं कुछ नहीं भेद अय चेतन!
रतन आतमको मूरख कयों कांच बदले बिकाता है?
(कविए ठपको आपीने सम्यक्त्वनी केवी प्रेरणा करी छे!)