Atmadharma magazine - Ank 331
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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: १० : आत्मधर्म : वैशाख : २४९७
तो हे बुद्धिमान! तारी प्रीतिने तेमां ज जोड....मोक्षना मंडपमां आत्माने बिराजमान
कर. तारुं चैतन्यपद आनंदमय छे ते राग–द्वेषथी रहित छे. अंतर्मुख थईने आवा
निजपदने नीहाळे ते सम्यग्दर्शन ने सम्यग्ज्ञान छे, भगवाने तो जगतने आवा
आनंदमय तत्त्वनी भेट आपी छे, ने ज्ञानी संतो ते बतावे छे.
सर्वज्ञ भगवानना वीतरागी मालनी एजन्सी (ईजारो) ज्ञानी सन्तो पासे छे.
सर्वज्ञदेवे कहेलुं आत्मानुं स्वरूप संतो पोताना ज्ञानमां अनुभवीने जगतने देखाडे छे;
तेओ तीर्थंकर भगवानना एलची (दूत) छे, तीर्थंकर भगवाननी पेढीमांथी लावेलो
चोकखो माल (एटले के वीतरागी मोक्षमार्ग) तेओ जगतने आपे छे के हे जीवो!
सुखनुं धाम एवो जे तमारो शुद्ध आत्मा छे तेमां अंतर्मुख उपयोगने जोडतां
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप आनंदमार्ग प्रगटे छे. मोक्षमार्ग कहो के आनंदमार्ग कहो,
ते आत्मामां समाय छे.
अरे, आत्माना आवा स्वरूपनो वारंवार विचार करवा जेवो छे. तेथी श्रीमद्
राजचंद्र कहे छे के– ‘कर विचार तो पाम! ’ बीजुं केटलुं कहीए? तारुं स्वरूप तारा
अंतरमां छे–ते तने बताव्युं; तेनो अंतरमां विचार कर तो तेनी प्राप्ति थाय.
साचो विचार तेने कहेवाय के जे आत्माने स्वसन्मुख लई जाय. संसारना
परभावो ते दुःख, ने आत्मानो स्वभाव ते सुख, –तेने जाणीने विचारवंत विवेकी जनो
तो सुखना सागरमां ज मग्न थाय छे, ने दुःखरूप संसारनी प्रीति अत्यंतपणे छोडे छे.
परनो प्रेम करतां तो पोताना आनंदनिधान लूंटाई जाय छे; माटे डाह्या–विचारवंत
जीवो सर्व परभावोनो प्रेम छोडीने पोताना सहज परम चैतन्यतत्त्वमां ज प्रीति करे छे.
जगतनी स्पृहा छोडीने पोताना निजतत्त्वनी ज मस्तीमां मशगुल रहे छे. एवा संतो
कहे छे के–
आमां सदा प्रीतिवंत बन, आमां सदा संतुष्ट ने,
आनाथी बन तुं तृप्त, तुजने सुख अहो, उत्तम थशे
ज्ञानीओने पोताना शुद्ध आत्मा सिवाय बीजा कोईमां रस नथी; तेमने मन–
वचन–कायानी प्रवृत्तिमां जोडाण देखाय, पण खरेखर तेमां तन्मयता नथी; ते प्रवृत्ति
एवी नथी के भिन्न आत्मानुं भान भूलाई जाय–तेथी पूज्यपाद स्वामी कहे छे के–