Atmadharma magazine - Ank 331
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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: वैशाख : २४९७ आत्मधर्म : ११ :
आत्मज्ञानात् परं कार्य न बुधो धारयेत् चिरम्।
बुधजनो–ज्ञानीजनो–सम्यग्द्रष्टि धर्मात्माओ पोताना चित्तने वारंवार अंतरमां
वाळीने ज्ञाननिधानने भोगवे छे; बीजा कोई बाह्यभावोने तेओ चिरकाळ सुधी धारण
करता नथी; ए बाह्यभावो तो क्षणभंगुर छे, एनी प्रीति ज्ञानीने नथी. अने आत्मानुं
जे सहज शुद्धस्वरूप तेमां कोईपण परभाव न होवाथी, ते शुद्धस्वरूपना अनुभवमां
परभावने टाळवानी चिंता पण नथी रहेती; स्वतत्त्वना परम आनंदनो ज अनुभव
छे. आवा आनंदरूप चेतनभगवान आत्मा पोते ज सदा पोताना अंतरमां बिराजी
रह्यो छे.
अरे, भगवान अंदर तारामां पधार्या......ने तें तेनी साथे वातुं न करी......तारा
भगवानने तें न देख्या...एनी सामुं पण न जोयुं? परभावनी वातमां रोकायो ने
अंदरना चैतन्यभगवाननी साथे वात करवा नवरो न थयो? भगवान अंदर छे ने तुं
ते भगवाननी सामे नथी जोतो? –तो तने डाह्यो कोण कहे? तने विचारवान कोण कहे?
आत्मानी रुचि छोडीने परभावनी रुचि करे तेमां तो कलेश छे.
अरे, चैतन्य आनंदनुं धाम, –तेने ज वारंवार चिंतववा जेवुं छे, तेमां ज तत्पर
थवा जेवुं छे, तेनी ‘भावना’ एटले ते–मय परिणति करवा जेवी छे. –ए ज एक
बुद्धिमान डाह्या पुरुषोनुं काम छे.
तुं स्थाप निजने मोक्षपंथे, ध्या, अनुभव तेहने,
तेमां ज नित्य विहार कर, नहीं विहर परद्रव्यो विषे.
* * * * *
अमारुं सुंदर स्थान
अहा, केवो स्वतंत्र अने सुंदर आत्मस्वभाव छे! बस,
आवा स्वभावथी आत्मा शोभे छे, तेमां वच्चे राग के विकल्प
क््यां रह्यो? आत्माना वैभवमां विभाव नथी. आवा
स्वभाववाळो ज्ञानमात्र आत्मा ते खरो आत्मा छे. आवा
आत्माने श्रद्धे–जाणे–अनुभवे ते सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र छे, ने
ते मोक्षमार्ग छे. भवथी थाकेला आत्मार्थीने आरामनुं स्थान छे.