: १४ : आत्मधर्म : वैशाख : २४९७
महिमा गायो छे! अरे, आ आत्माना पोताना घरनी चीज छे, पण जीवे पोते पोतानो
महिमा कदी जाण्यो नथी, ते महिमा ओळखावीने आत्मानो अनुभव करावे छे. आवा
अनुभवमां शुं–शुं समाय छे? ते बतावीने कहे छे के अहो! आत्माना अनुभव समान
बीजो कोई धर्म नथी.
जेम अनेकविध रसायण थाय छे; जे रसायण छांटतां पथ्थरमांथी सोनुं थई
जाय; तेम अहीं जगतना ज्ञानीओ कहे छे के अहा! साचुं तो आ अनुभव रसायण छे
के जे छांटतां आत्मा पामरमांथी परमात्मा बनी जाय छे. अज्ञानीओ जड–रसायणनो
महिमा देखे छे, ज्ञानीओ तो चैतन्यना अनुभवरूपी रसायण पासे जड–रसायणने धूळ
समान ज देखे छे.
जेम पथ्थरमांथी सोनुं बनी जाय, तेम अनेक प्रकारनां रोग होय ते पण मटी
जाय एवुं रसायण थाय छे, पण ते रसायणथी कांई भवरोग न मटे. आ अनुभव–
रसायण ज एवुं छे के जेना वडे तरत ज भवरोग मटी जाय छे ने परम मोक्षसुख
पमाय छे. अहो! आवा अनुभवरसनुं हे जीवो! तमे सेवन करो. आत्माना
अनुभवनो, अने एवा स्वानुभवी संतोनो जेटलो महिमा करीए तेटलो ओछो छे.
पोते आवो अनुभव करवो ते ज सार छे.
आ समयसारमां आवो अनुभव करवानुं बताव्युं छे; तेथी कहे छे के–
नाटक सुनत हिये फाटक खुलत है।
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आत्मानी अनुभूति
विकारथी जुदो आत्मानो अनुभव थाय छे, शरीरथी जुदो आत्मानो
अनुभव थाय छे, पण ज्ञानथी जुदो के आनंदथी जुदो आत्मानो अनुभव थतो
नथी; केमके विकार अने शरीर ते आत्माना स्वभावनी चीज नथी एटले ते
तो शुद्धात्माना अनुभवमां साथे रहेता नथी, पण ज्ञान ने आनंद तो
आत्माना स्वभावनी चीज छे एटले ते तो शुद्धात्माना अनुभवमां साथे ज
रहे छे.
–आ रीते समस्त परभावोथी भिन्न, ने पोताना ज्ञानादि निजभावोथी
अभिन्न, आवा शुद्धात्मानी अनुभूति ते सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र छे.