: वैशाख : २४९७ आत्मधर्म : २३ :
तेनो मित्र लखु बोली ऊठ्यो–वाह! मित्र, धन्य छे तने, अने तने आवा ऊंचा
संस्कार आपनार माताने! भाई, हुं पण हवेथी तारी साथे आ चारे वातोनुं पालन
करीश.
घरना बधा बोली ऊठया– अमे सौ पण आ चारे वातनुं पालन करीशुं, ने
अमारा घरने एक शुद्ध जैननुं आदर्श घर बनावीशुं.
जिननंदन अने लक्ष्मीनंदन आजना प्रसंगथी खूब आनंदित थया अने माताने
कह्युं–मा, आजे तमारा प्रतापे आनंदथी जन्मदिवस उजवायो, अने अमारा जन्मदिवसे
अमने चैतन्यहीरो मळ्यो.
बेटा! ए चैतन्यहीराना प्रकाशवडे तमे केवळज्ञान पामो
ए आजना जन्मदिवसना मंगल आशीष छे.
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सहेलुं.......सुगम....सुखकर
शुद्ध चैतन्य सत्तानुं होवापणुं पोताना ज्ञान आनंदादि
अनंत गुणपणे छे, परपणे के रागपणे तेनुं होवापणुं नथी. आवी
शुद्ध जीवसत्ताने लक्षगत करतां ज्ञान साथे अनंत गुणपर्यायो
निर्मळपणे उल्लसता अनुभवाय छे. आवा आत्मद्रव्यने द्रष्टिमां
लेवुं ते सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र छे, ते आत्मवैभव छे, ते
मोक्षमार्ग छे. आ पोताना स्वघरनी चीज होवाथी सहेली छे,
सुगम छे, सहज छे.
परचीजने पोतानी करवी ते तो अशक््य छे. रागादि
विकारने स्वभावघरमां प्रवेश करवानुं पण अशक््य छे; निर्मळ
स्वभावने द्रष्टिमां लईने निर्मळ सम्यक्त्वादि भावो उत्पन्न करवानुं
सुगम छे, सहज छे. सुखकर छे. तेमां कोईनी ओशीयाळ पण
करवी पडती नथी, ने तेनाथी पोतानुं महान हित थाय छे–तो आवुं
उत्तम कार्य क््यो बुद्धिमान न करे?
–आत्मवैभव.