: वैशाख : २४९७ आत्मधर्म : २५ :
तेना वडे जीवनुं मूल्य ओळखाय नहीं; जीवनुं स्वरूप तेनाथी पार छे.
७. जीव पोते उपयोगमय छे; उपयोग स्वरूपे ज ते अनुभवाय छे; अने आवा
अनुभव वडे ज आत्मानुं साचुं मूल्यांकन थाय छे एटले के सम्यग्दर्शन ने
सम्यग्ज्ञान थाय छे.
८. जेम श्रीफलमां छोतां काचली ने छाल ए त्रणेथी जुदुं सफेद मीठुं टोपरुं छे, तेम
शरीर–कर्म अने रागादिथी जुदुं शुद्ध चैतन्य आनंदमय आत्मतत्त्व छे.
९. आ रीते चेतनस्वरूप आत्मा अने रागादि परभावो–ए बंनेने सर्वथा भिन्न
ओळखीने जीव परभावोथी जुदो पडे छे, अने ज्ञानभावरूपे ज रहे छे.
१०. ज्ञानमात्र भावमां रागादिभावोनो अभाव छे, एटले तेने कर्मबंधन पण थतुं
नथी. आ रीते ज्ञानभाव वडे जीव बंधनथी छूटीने मोक्ष पामे छे.
११. जे जीव पोते जिज्ञासु थईने, मोक्षनो अर्थी थईने, मोक्षनो उपाय पूछे छे, तेने
आचार्यदेव आ मोक्षनी रीत समजावे छे.
१२. जेने मोक्षनी जिज्ञासा होय, जेने आत्मानुं स्वरूप समजवानी खरी जिज्ञासा
होय–एवा गरजवान शिष्यने माटे आ शास्त्र–व्याख्या छे.
१३. देहथी भिन्न आत्मा चैतन्यवस्तु छे, तेने रागनो–दुःखनो अनुभव छे; जडने ते
अनुभवतो नथी; आनंदनो अनुभव तेनो स्वभाव छे पण ते आनंदनी तेने
खबर नथी. –छतां ते आनंदनुं स्वरूप तो तेनामां छे ज, ते कांई चाल्युं गयुं
नथी. ते स्वरूप अहीं ओळखावे छे.
१४. अज्ञानीने सुख देखाय छे ने? –ए सुख नथी, पण जेम सन्नोपातीओ रोगी
त्रिदोषना रोगथी, हरख करीने पोताने सुखी–निरोगी माने, तेनी जेम अज्ञानी
मिथ्यात्वादि त्रिदोषथी दुःखी होवा छतां भ्रमणाथी ज पोताने सुखी माने छे.
१प. चेतन आत्मा प्रज्ञास्वरूप छे, तेमां कांई रागनो के कर्मनो प्रवेश नथी; ते तो
ज्ञानमहिमावंत भगवान छे.
१६. जे रागादि भावो छे ते प्रज्ञाथी जुदा छे, तेनो अनुभव मलिन छे, अने तेनाथी
कर्मो आवतां होवाथी ते आस्रवो छे. जीवनी पर्यायमां आवा आस्रवोनुं
अस्तित्व छे, पण मूळ प्रज्ञास्वभावमां ते नथी.