Atmadharma magazine - Ank 331
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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: ३४ : आत्मधर्म : वैशाख : २४९७
(बीजी रत्नमाळा प७ रत्नोनी शरू)
पोरबंदरमां समुद्रकिनारे कहानगुरुना श्रीमुखथी जिनवाणीनो वीतरागी
प्रवचनसमुद्र उल्लसी रह्यो छे ने हजारो श्रोताजनो एना मधुर तरंगो झीली
रह्या छे; ते प्रवचनसमुद्रनां रत्नो वडे गूंथेली २०१ रत्नोनी माळा आप वांची
रह्या छो.
८३. भेदज्ञान ते मंगळरूप छे.
८४. भेदज्ञान तेने कहेवाय के जे रागादि समस्त पर भावोथी जुदुं पडे अने
ज्ञानभावरूप थईने परिणमे.
८प. रागमां जे तन्मय रहे, रागना अंशथी जे लाभ माने, रागने धर्मनुं साधन
माने, ते तो अज्ञान छे, तेने भेदज्ञान कहेता नथी. साचुं ज्ञान तो आत्मा तरफ
झुकेलुं छे, अने रागादिथी जुदुं पडेलुं छे.
८६. आवुं सम्यग्ज्ञान केम थाय? आत्माना अनुभवनी बहु जिज्ञासाथी शिष्य पूछे
छे के प्रभो! आत्मानुं आवुं ज्ञान कई रीते प्रगट करवुं? ते ज्ञानमां आत्मा केवो
अनुभवाय छे? –आवी धगशवाळा शिष्यने श्रीगुरु आत्माना अनुभवनी रीत
समजावे छे. (स. गाथा ७३)
८७. आत्मानी अलौकिक चैतन्यविद्यानी आ वात छे. आ चैतन्यविद्यानां भणतर
जीव कदी भण्यो नथी. अंतरना अपूर्व अभ्यास वडे पोते पोताना आत्माने
प्रत्यक्ष अनुभवमां लेवानी आ वात छे.
८८. आत्मा पोते पोताने जाणी शके छे. ईन्द्रियज्ञानवडे आत्मा अगोचर छे, पण
स्वानुभूतिरूप अतीन्द्रियज्ञानमां तो पोते पोताने गम्य थाय छे एटले
अनुभवगोचर छे.
८९. आवा आत्माने अंदरना निर्विकल्प अनुभववडे अनुभवगम्य करीने, ते
अनुभवना आनंदमां कलम बोळीबोळीने कुंदकुंदाचार्यदेवे आ शास्त्र रच्युं छे.
जेवा रंगनी शाही होय तेवा अक्षर लखाय, तेम चैतन्यना रंगवाळी,
स्वानुभवरूपी शाहीथी लखायेल आ शास्त्रमां आत्माना अनुभवनुं वर्णन छे.
९०. अनुभव करनार जीव पहेलांं तो ज्ञानना बळथी आत्माना शुद्ध स्वरूपनो
निर्णय करे छे; ते निर्णय करीने अंर्तसन्मुख थाय छे.