: वैशाख : २४९७ आत्मधर्म : ३७ :
१०७. आत्मामां रमे ते राम.....रागमां रमे ते हराम.
१०८. अपमान थतां ओगळी जाय, के मान मळतां वेंचाई जाय–एवो आत्मा नथी;
आत्मा तो मान–अपमानथी पार चैतन्यमात्र वस्तु छे.
१०९. आत्मा देखाय? हा; ज्ञाननी स्वसंवेदनक्रियावडे आत्मा पोते पोताने साक्षात्
थाय छे. पण जडनी क्रिया वडे के रागनी क्रिया वडे देखवा मांगे तो आत्मा
देखाय नहीं.
११०. जगतमां सौथी मोटो एवो स्वयंभू नामनो समुद्र असंख्य रत्नोथी भरेलो छे;
तेम असंख्यप्रदेशी एवो आ स्वयंभू–चैतन्यसमुद्र छे ते पोताना अनंत गुण–
रत्नोथी त्रणेकाळ भरेलो छे.
१११. आत्माना आवा स्वभावनुं श्रवण–बहुमान अने विचार करतां पण मोह मंद
पडी जाय छे, ने पछी यथार्थ निर्णयना बळे मोहनो नाश थईने सम्यग्दर्शन
थाय छे.
११२. अहो, अंतरमां आत्माना रहस्यना उकेल करवानी आ वात छे. वाणीमां जे
आवे नही, विकल्पथी जेनो पार पमाय नहि. ज्ञानचेतना वडे ज जेनो पार
पमाय एवो आत्मा छे.
११३. चेतनाथी जुदा एवा रागनुं जेने स्वामीत्व छे ते निर्मम नथी, ते तो रागनी
ममता वाळो छे, रागथी भिन्न आत्माने ते अनुभवतो नथी.
११४. आत्माने ज्ञानस्वरूपे अनुभवे तेने रागनुं ममत्व रहे नहीं, रागना अंशने पण
ते पोतामां माने नहि.
११प. “ ध्वनिना नादवडे सर्वज्ञपरमात्मानो आदेश छे के हे जीवो! तमे तमारा
ज्ञानानंदमय स्वभावना ज स्वामी छो, रागादि परभावना स्वामी तमे नथी;
माटे ते परभावनुं ममत्व छोडी पोताने सहज ज्ञानस्वभावपणे ज अनुभवो.–
ए ज मोक्षनी रीत छे.
११६. सहज स्वभावनी अनुभूति रागनां साधन वडे थती नथी. अनुभूतिमां
स्वभाव पोते ज पोतानुं साधन थाय छे.