: ४० : आत्मधर्म : वैशाख : २४९७
१३४. चैतन्य–हीरो जेना हाथमां आव्यो ते रागादि परभावरूपी कोलसाने केम पकडे?
चैतन्यना आनंदनी मीठास पासे रागनो स्वाद तो अत्यंत कडवो छे. पोताना
आनंदसमुद्रमां मग्न थयेलो आत्मा समस्त विकल्पोने तत्क्षण ज वमी नांखे छे.
आनंदना अनुभवमां विकल्पनी आकुळता रहेती नथी.
१३प. अहा! मारी आत्मवस्तुनो आवो स्वभाव! आवो गंभीर महिमाथी भरेलो
चैतन्यसमुद्र हुं ज पोते छुं.–आवा निर्णयमां अपूर्व ताकात छे.
१३६. निजस्वरूपने भूलीने अनादिकाळथी जीव दुःख वेदी रह्यो छे. ते भूल कोनी?
जीवनी पोतानी; ते केटला काळनी? –एक क्षणनी; ते भूल कोण मटाडे? जीव
पोते ते भूल केम मटे? –के निजस्वरूपनी संभाळ करतां भूल मटे. निजस्वरूप
केवुं छे? –के रागादिक आगंतुक बाह्यभावोथी जुदुं जे शुद्ध चिदानंद तत्त्व छे ते
ज निजस्वरूप छे.
१३७. आ ज्ञानीनी अनुभूतिनी वात छे. चैतन्यनी एवी निश्चल अनुभूति थई के
विकल्पोनी पक्कड छूटी गई....ने निःशंक थई गया के हवे आ चैतन्यनी ज
अनुभूति वडे समस्त परभावनो हुं क्षय करीश.
१३८. स्वसंवेदन–प्रत्यक्षपणे चैतन्यदीवडो जाग्यो छे, हवे कोईपण पर द्रव्य मने
जरापण मारापणे भासतुं नथी; समस्त परद्रव्योथी अत्यंत भिन्न एवी मारी
चैतन्यवस्तुमां ज हुं अचल छुं......
१३९. आ प्रकारे पोताना आत्मानुं वेदन ते ज आस्रवोनां दुःखथी छूटवानी रीत छे,
अने ते ज मोक्षने साधवानो उपाय छे.
–आत्मानी आवी अनुभूतिवडे ज्ञानचेतनारूप थयेला धर्मात्मा आनंदना
अनुभवसहित मोक्षने साधे छे....तेमने नमस्कार हो.
* (प्रवचन–समुद्रना २०१ रत्नोमांथी प७ रत्नोनी बीजी रत्नमाळा अहीं पूरी थई.)*
त्रीजी रत्नमाळा ६२ रत्नोनी शरू
१४०. हे जीव! तारे तारुं हित करवुं छे ने! –तो ज्ञानीओ तने तारा हितनी रीत
समजावे छे. अंदरना अपूर्व भावथी तुं आ वात लक्षमां ले.