: वैशाख : २४९७ आत्मधर्म : ४१ :
१४१. पहेली वात ए छे के तुं तारा आत्मानो प्रेम कर, जगतना बाह्य पदार्थोनुं
कुतूहल अने प्रेम करे छे तेने बदले अंतरमां बिराजमान तारो आतमराम केवो
अद्भुत छे तेने जाणवानुं कुतूहल अने प्रेम कर. आत्मानुं स्वरूप केवुं छे ते
विचारमां लईने निर्णय कर.
१४२. जेम मीठापाणीनो दरियो छलोछल भर्यो होय तेम आत्मा आनंदनां मीठा
जळथी भरपूर चैतन्यदरियो छे. जेम दरियामां माछलुं तरस्युं, तेम आनंदनो
दरियो आत्मा पोते होवा छतां अज्ञानने लीधे ते दुःखी छे. दरियामां रहेलुं
माछलुं बहार पाणी शोधे तेम अज्ञानी जीव आत्माथी बहार सुख शोधे छे. –
पण सुखस्वरूपी तो पोते ज छे......सुखना दरियामां ज पोते वसे छे. एने सुख
शोधवापणुं छे ज क््यां?
१४३. अरे, हाथी जेवा प्राणी पण ते मोटा देहथी भिन्न पोताना आत्मानुं भान करीने
अंदर ऊतरी जाय छे; ‘हुं पशुं छुं’ ए भूलीने, हुं तो चैतन्यपरमेश्वर छुं’ एम
ते अनुभवे छे. ते अनुभव थतां समस्त परभावोनी पक्कड छूटी जाय
छे.....आत्मा पोते पोताना स्वरूपे रहे छे.
१४४. पोताना आत्मानुं स्वरूप ओळखीने अनंता जीवो परमात्मा थई गया छे. आ
आत्मा पण ए परमात्मानी जातनो ज छे.
१४प. जुओ, आवा आत्माने ओळखवो ते सर्वज्ञनो धर्म छे.–
सर्वज्ञनो धर्म सुशर्ण जाणी, आराध्य आराध! प्रभाव आणी;
अनाथ एकांत सनाथ थाशे, एना विना कोई न बाह्य स्हाशे.
१४६. आत्मानो स्वाद आनंदस्वरूप छे, पण रागादि वृत्तिओनो स्वाद तेनाथी
विपरीत जातनो छे. ज्ञान ज्ञानमां ठरतां तेमां आनंद आवे छे. पण तेमां राग
आवतो नथी. माटे ज्ञान ते आत्मा छे, ने रागादि ते खरेखर आत्मा नथी.
१४७. आत्मा केवडो छे? के अंदर पोताना स्वसंवेदनमां आवे तेवडो. आत्माना
स्वसंवेदन माटे अंदर जोवुं पडे छे, बहारमां जोवुं नथी पडतुं. केमके आत्मा
बहारमां व्यापक नथी.