: ४२ : आत्मधर्म : वैशाख : २४९७
१४८. आत्माना अनुभव माटे राग सामे जोवुं नथी पडतुं, केमके आत्मा रागमां
व्यापक नथी.
१४९. अनंत गुणे परिपूर्ण पोतानो जे चैतन्यस्वभाव, तेमां ज आत्मा व्यापक छे,
ते ज आत्मा छे, तेनी सन्मुखताथी ज आत्मानो साचो अनुभव थाय छे.
१प०. भाई, जेटलामां आ शरीर छे तेटलामां ज तारो चिदानंदस्वरूप आत्मा छे,
देहथी तद्न जुदो एनो स्वभाव छे. दरिया जेवा गंभीर स्वभावमां अनंता
गुणरत्नो भरेला छे. ‘कांठे ऊभो रहीने ते शोध मा; अंदर डुबकी मार. ’
१प१. ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा मुक्त ज छे, ते कोई बीजाथी बंधायो नथी. क्षणिक
विकारने ज आत्मा मानीने पोताने बंधायेलो मान्यो छे, पण जो
स्वभावनी शुद्धताने जुए तो मुक्त तत्त्व देखाय छे.
१प२. जेम बोरना माटलामां वांदरानो हाथ कोईए पकड्यो नथी, पण वांदरे
बोरनी मूठी पोताना हाथमां बांधी छे–ते ममताने लीधे पोते पकडायो छे;
ने बीजाए मने पकड्यो एम माने छे. तेम जीव पोताना स्वभावने भूलीने
परभावनी ममताथी पकडायो छे, ने बीजाए मने बांध्यो–एम अज्ञानथी
माने छे.
१प३. तुं परभावनी ममता छोडी दे, ने ज्ञानस्वभावरूप जेवो छो तेवो निश्चल
रहे, तो ज्ञान–आनंदनो चैतन्यदरियो तारामां ज तने देखाशे. अहा,
चैतन्यदरियो पोताना आनंदतरंगमां डोली रह्यो छे.
१प४. परमात्मा कहे छे के हे आत्मा! तारो आत्मा ज केवळज्ञाननां पाक पाके
एवुं चैतन्यवृक्ष छे; आ चैतन्य झाडनी डाळीए रागनां झाड न पाके; अने
रागनां झाडमां केवळज्ञाननां फळ न पाके.
१पप. चैतन्यनो अनादर करीने जे रागनो आदर करे छे ते अमृतनां मीठा झाडने
छोडीने झेरनां झाडने सेवे छे.
१प६. राग–द्वेष, क्रोधादि विकारी भावो छे ते अस्थिर छे, राग पलटीने बीजी क्षणे