Atmadharma magazine - Ank 331
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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: वैशाख : २४९७ आत्मधर्म : ४५ :
१७४. धर्म थाय ने दुःख न मटे–एम बने नहि. ज्ञान थाय ने सुख न थाय–एम बने
नहि. ज्ञाननी उत्पत्ति ने दुःखनो नाश–एक ज क्षणे थाय छे.
१७प. आत्माने शोधवा जतां वच्चे विकल्प ऊठे तेनाथी पण आत्मा जुदो छे, माटे
ज्ञानने एनाथी जुदुं पाडीने, ते ज्ञानवडे आत्माने शोध.
१७६. सम्यग्दर्शनादि रत्नो क््यां शोधवा? तारा अंतरमां ज चैतन्य–रत्नाकर छे तेमां
शोध.
१७७. संसार क््यां छे? संसार नथी तारा स्वभावमां, संसार नथी परमां; स्व–परनी
भिन्नताने भूलीने वच्चे तें ऊभुं करेलुं जे अज्ञान, तेमां ज संसार छे.
१७८. ते संसार केम मटे? आत्मानो ज्ञानस्वभाव, अने तेनाथी विरुद्ध एवा पुण्य–
पापना भावो, ते बंनेनी भिन्नता जाणीने आत्मा पोताने ज्ञानस्वभावरूपे
अनुभवे त्यां ते अनुभवमां संसार छूटी जाय छे.
१७९. ज्ञानमां आस्रव नथी, एटले के ज्ञानमां संसार नथी. माटे ज्ञाननो अनुभव ते
ज संसारथी छूटवानी रीत छे.
१८०. ज्ञाननो ज स्वाद शांत–अनाकुळ छे; पापनो के पुण्यनो ए बंनेनो स्वाद तो
अशांतिरूप–आकुळतावाळो छे. बंनेना स्वभाव अत्यंत जुदा छे.
शुभविकल्पनोय स्वाद जेने सारो लागे छे तेने ज्ञानरसनी खबर नथी.
१८१. ज्ञानरसनो स्वाद जेणे चाख्यो ते सर्वप्रकारना रागने पोताथी जुदा स्वादवाळो
जाणीने छोडे छे. आ भाव मारो नहि, आ राग मारुं स्वरूप नहीं.–एम एक
क्षणमां तेने भिन्न जाणीने छोडे छे.
१८२. अहो, समयसारमां आचार्यदेवे मोक्षनो मार्ग खोली दीधो छे. शुद्ध आत्माना
आश्रये ज मोक्षनी सिद्धि थाय छे–ए वात वारंवार स्पष्ट करीने समजावी छे.
१८३. भाई, आ तारी वात छे ने तने समजाय तेवी छे. आ शरीर तो अचेतन छे ने
तेनो नाश थवा छतां आत्मानुं अस्तित्व तो सदाय रहे छे; आ शरीर पहेलांं
आत्मा क््यां हतो तेनुं ज्ञान पण थाय छे. आ रीते आत्मा देहथी जुदो छे. ते
जराक विचार करे तो समजाय तेवुं छे.