: वैशाख : २४९७ आत्मधर्म : ४७ :
१९३. चैतन्यनी आनंदरूप अनुभूति सिवाय बहारना जे कोई रागभाव थाय तेमां
सुख नथी, तेना फळमां पण सुख नथी, ते दुःख छे, तेनुं फळ पण दुःख छे.
१९४. पुण्यना फळमां पण दुःख? –हा; ते पुण्यना फळमां संयोग मळे, ते संयोग
तरफना लक्षे जीवने आकुळतारूप दुःख ज छे; सुख तो संयोगथी पार चिदानंद
स्वभावमां छे. ते स्वभावने अनुभवे त्यारे ज दुःखदायक आस्रवोथी जीव छूटे
छे.
१९प. दुःखथी केम छूटाय? तेनी आ रीत वीतरागी संतोए बतावी छे. सुखनो दरियो
अंदर छलकाई रह्यो छे तेमां एकाग्र थतां दुःख रहेतुं नथी. सुख तो स्वभावथी
ज छे, ते कांई लेवा जवुं पडतुं नथी.
१९६. भगवान्! शुभवृत्तिओ के जे तने दुःखदातार छे तेने तें पोतानी मानीने पकडी
राखी छे; ते दुःखदायक छे अने आत्मानो स्वभाव ज सुखमय छे–एम तुं जाण
तो तरत ज ते शुभवृत्तिनी पक्कड तने छूटी जशे.....अने आत्मा राग वगरनो
विज्ञानघन थशे–आनुं नाम धर्म!
१९७. रोजना पांचलाख रूपियानुं तेल आपे एवो कुवो नीकळवानी वात सांभळतां
लोकोने आनंद अने आश्चर्य थाय छे......पण भाई! त्रणलोकना वैभव करतांय
महान आनंद आपे एवा केवळज्ञानना अनंत वैभव तारा चैतन्य पाताळमां
भर्या छे, भेदज्ञानवडे खोदीने ते निधानने बहार काढ. क्षणे क्षणे अनंतसुख
सदाकाळ आप्या करे एवा अखूट तारा निधान छे.
१९८. साचो जीव एने कहेवाय के जे सुख आपे.......सुखनुं वेदन आपे तेने जीव
कहेवाय; दुःखना वेदनने जीव केम कहेवाय? माटे जेमां वेदन होय ते बधा
रागादि भावोने तारा आत्माथी जुदा जाण. जेमां सुखनुं वेदन छे, एवो
विज्ञानघन आत्मा ज तुं छो. एना सिवायनुं बीजुं बधुं अनात्मा छे.
१९९. आत्मानो जे स्वभाव होय तेनाथी कर्म न बंधाय; ने जे भावथी कर्म बंधाय ते
आत्मानो स्वभाव न होय. आत्मा चेतनभाव छे, ते कर्मबंधनुं कारण थतो
नथी, ते तो मोक्षसुखनुं ज कारण छे.–एवा स्वभावमां पहोंच्ये ज कल्याण थाय
छे.
२००. हे जीव! आ रीते भेदज्ञानवडे तारा शुद्ध आत्माने तुं रागादिथी अत्यंत जुदो