लीधे त्रण लोकना राजा छे. तीर्थंकर तो ते ज भवे मोक्ष पामे; अने चक्रवर्ती
जोके मोक्षगामी तो छे ज पण ते ज भवे मोक्ष पामे के पछी पण पामे.
भरतक्षेत्रमां एक चोवीसीमां तीर्थंकरो २४ थाय ने चक्रवर्ती १२ थाय.
खंडना राजवैभवने छोडीने धर्मना चक्रवर्ती तीर्थंकर थया. एक वात याद
राखजो के तीर्थंकरपणुं अने चक्रवर्तीपणुं ए बंने पद तो पुण्यप्रकृतिनुं फळ
छे, ते बंने वगर पण मोक्ष पामी शकाय छे, केमके आत्मगुण तेनाथी जुदा
छे. सर्वज्ञता ते आत्मगुण छे.
रही शकवुं तेनुं नाम चारित्रमोह.
आत्मस्वरूप जेवुं छे तेवुं समजतां दर्शनमोह टळे; अने पछी वीतरागभावे
स्वरूपमां स्थिर रहेता चारित्रमोह टळे.
अनंत दुःख नाम सौख्य, प्रेम त्यां विचित्रता!!
उघाड न्यायनेत्रने नीहाळ रे नीहाळ तुं,
निवृत्ति शीघ्रमेव धारी. ते प्रवृत्ति बाळ तुं.
कहेवामात्र छे, खरेखर तेमां दुःख नथी, –एवा आत्मानी मित्रता तने केम
न रही? एनो प्रेम तने केम न आव्यो? अने बाह्य विषयो–के जेमां अनंत
दुःख छे ने सुख तो कहेवामात्र ज छे, खरेखर तेमां सुख नथी,
–ते विषयोमां तने प्रेम आवे छे! –आ केवी विचित्रता छे? आ तने शोभतुं
नथी. –माटे तारा न्यायनेत्रने (ज्ञान–