Atmadharma magazine - Ank 331
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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: ६२ : आत्मधर्म : वैशाख : २४९७
अहा, वीतरागी सन्तो करुणा पूर्वक कहे छे के हे भाई! अब आतमके हितपंथ
लाग’ बापु, तारो घणो काळ दुःखमां चाल्यो गयो, हवे तो सावधान थईने आत्मानुं
हित कर. हित करवानो आ अवसर छे. आ उत्तम अवसरने चुकीश ना. राग दुःखदायक
होवा छतां तेने सुखदायक मानीने सेव्यो, ने सम्यग्दर्शनपूर्वकनो वीतरागी चारित्रधर्म
आनंददायक होवा छतां तेने दुःखदायक मान्यो–ए प्रमाणे बंध–मोक्षना कारणोमां भूल
करी एटले तत्त्वश्रद्धामां विपरीतता थई. ए तत्त्वनी भूलरूप मिथ्यात्व छोडीने, यथार्थ
तत्त्व ओळखीने सम्यग्दर्शन प्रगट करीने अंतरमां मोक्षमार्ग प्रगट करवो; ते माटे हे
आत्मा! तुं सावधान था.
साचा जैन वीतरागमार्ग सिवाय बीजा मार्गने मानवो ते तो गृहीतमिथ्यात्व
छे. –तेमां ऊंधाई छे; ने जैनमार्गमां आवीने पण जो पोते अंतरमां सर्वज्ञदेवे कहेला
नवतत्त्वोनो निर्णय करीने आत्मानो अनुभव न करे तो अनादिनुं मिथ्यात्व टळतुं
नथी. तेथी ज्ञानीओए सात तत्त्वोनी श्रद्धामां जीवनी भूल शुं छे ते बतावीने ते
छोडवानो उपदेश दीधो छे. सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र आनंददायक छे ने मिथ्यादर्शन–
ज्ञान–चारित्र महादुःखदायक छे; माटे ए बंनेने बराबर ओळखीने सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्रने ग्रहण करो, ने मिथ्यादर्शन–ज्ञान–चारित्रने छोडो.
ज्ञानीओ करुणाथी उपदेश करे छे के हे भाई! हे भव्य! अहीं संसारमां जे दुःखो
बताव्यां, तथा तेना कारणरूप मिथ्यात्वादि भावो बताव्यां, तेनो अनुभव तने थाय छे
के नहीं? धर्मना नामे तुं जे उपायो अत्यार सुधी करतो हतो तेनुं जूठापणुं दर्शाव्युं ते
तेमज छे के नहि? तथा सम्यग्दर्शनादि वडे सिद्धअवस्थामां प्राप्त थतां परम सुख थाय–
ए वात बराबर छे के नहीं? –आ बधुं तुं विचारी जो. अने जो उपर कह्या प्रमाणे ज
तने प्रतीति आवती होय तो संसारथी छूटीने सिद्धपद पामवाना अमे जे उपाय कहीए
छीए ते कर! विलंब न कर. ए उपाय करवाथी तारुं कल्याण ज थशे.
मिथ्यात्वादि सेवतां थयुं जीवने दुःख; ते छोडी सम्यक् भजो थाये साचुं सुख.
एवुं सम्यक् सेवीए जगतमां जे सार, वीतरागविज्ञानथी थईए भवथी पार.