होवा छतां तेने सुखदायक मानीने सेव्यो, ने सम्यग्दर्शनपूर्वकनो वीतरागी चारित्रधर्म
करी एटले तत्त्वश्रद्धामां विपरीतता थई. ए तत्त्वनी भूलरूप मिथ्यात्व छोडीने, यथार्थ
तत्त्व ओळखीने सम्यग्दर्शन प्रगट करीने अंतरमां मोक्षमार्ग प्रगट करवो; ते माटे हे
आत्मा! तुं सावधान था.
नवतत्त्वोनो निर्णय करीने आत्मानो अनुभव न करे तो अनादिनुं मिथ्यात्व टळतुं
नथी. तेथी ज्ञानीओए सात तत्त्वोनी श्रद्धामां जीवनी भूल शुं छे ते बतावीने ते
छोडवानो उपदेश दीधो छे. सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र आनंददायक छे ने मिथ्यादर्शन–
चारित्रने ग्रहण करो, ने मिथ्यादर्शन–ज्ञान–चारित्रने छोडो.
के नहीं? धर्मना नामे तुं जे उपायो अत्यार सुधी करतो हतो तेनुं जूठापणुं दर्शाव्युं ते
तेमज छे के नहि? तथा सम्यग्दर्शनादि वडे सिद्धअवस्थामां प्राप्त थतां परम सुख थाय–
ए वात बराबर छे के नहीं? –आ बधुं तुं विचारी जो. अने जो उपर कह्या प्रमाणे ज
तने प्रतीति आवती होय तो संसारथी छूटीने सिद्धपद पामवाना अमे जे उपाय कहीए
छीए ते कर! विलंब न कर. ए उपाय करवाथी तारुं कल्याण ज थशे.
एवुं सम्यक् सेवीए जगतमां जे सार, वीतरागविज्ञानथी थईए भवथी पार.